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________________ प्रास्ताविक : ३१ की सूचना है।' इस पद्य के चतुर्थ चरण का आधा भाग त्रुटित है एवं दो-एक स्थल संदिग्ध हैं, तथापि इतना तो स्पष्ट लिखा है कि 'यह मूलाचार नामक शास्त्र आदि जिनेन्द्र वृषभनाथ द्वारा उपदिष्ट है और वह परम्परा-प्रवाह से आकर आचार्य कुन्दकुन्द को प्राप्त हुआ। उसे दिव्यचारण ऋद्धि धारकों में अन्तिम आचार्य कुन्दकुन्द ने रचा। उसकी व्याख्या आचार्य वसुनन्दि ने की, उसमें प्रमाद-जन्य भूलों को शास्त्रवेत्ता संशोधन करके पढ़ें' ।२ इस पद्य के आशय से स्पष्ट है कि यह पद्य आचार्य वसुनन्दि का भी नहीं है अपितु किसी लिपिकार का प्रशस्तिपद्य है। आधुनिक विद्वानों में स्व० पं० जुगलकिशोर मुख्तार3, पं० हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री, क्षुल्लक सिद्धिसागर, क्षुल्लक जिनेन्द्रवर्णी प्रभृति विद्वानोंने आचार्य कुन्दकुन्द अथवा एलाचार्य को ही वृत्तिकार-वट्ट केराचार्य माना है । इनके नाम के आधार पर प्राकृत व्याकरणादि से सिद्ध करने का प्रयास भी किया है। इन विद्वानों की मान्यता है कि कुन्दकुन्दाचार्य ने खड्खण्डागम के तीन खण्डों पर 'परिकर्म वृत्ति' लिखी है । अतः वृत्तिकार से 'वट्टकेर' ऐसा नाम प्रचलन में आया। क्षुल्लक सिद्धिसागर ने लिखा है 'वट्टक या वट्ट' का अर्थ ज्येष्ठ, प्रधान या वृहद् होता है । अतः वृहद्-एलाचार्य, ज्येष्ठ एलाचार्य या प्रधान एलारिय को वट्ट केराचार्य का नामान्तर समझना चाहिए ।४ क्षुल्लक जिनेन्द्रवर्णी ने लिखा है-'मूलाचार' नाम के दो ग्रन्थ उपलब्ध है-एक में रचयिता का नाम आचार्य वट्टकेर दिया है तथा दूसरे में कुन्द ch मूलाचाराख्यशास्त्रं वृषभजिनवरोपज्ञमहत्प्रवाहादायातं कुन्दकुन्दाह्वयचरमलसच्चारणस्सु प्रणीतम् ।। तद्व्याख्यां वासुनन्दीमबुध विलिखनावाचनानायामा सभक्त्या, ......"संशोध्याध्यतु महमिकृतयति कृति".....॥२०५॥ अनेकान्त वर्ष १३, किरण १, पृ० १८, जुलाई १९५४ । पं० हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री के लेख से उद्धृत २. वही ३. जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, प्रथमखण्ड, पृष्ठ ९९-१०१ ४ अनेकान्त, वर्ष १२, किरण १२, पृ० ३७२ ५. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग २, पृ० १२७ तथा भाग ३, पृ० ३३० ६. माणिकचन्द जैन ग्रन्थमाला से वि० सं० १९७७ तथा १९८० में दो भागों में प्रकाशित । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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