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________________ ५२२ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन प्रकार संसाररूपी चक्र में पड़े हुए जीव के भावों से कर्म और कर्म के भाव होते रहते हैं । यह प्रवाह अभव्य जीवों की अपेक्षा अनादि अनन्त है और भव्य जीव की अपेक्षा सादि मात्र है ।" कर्म सिद्धान्त और सृष्टि प्रक्रिया इस प्रकार जीव की क्रिया के साथ पौद्गलिक कर्मबन्धन के इस सिद्धान्त की मान्यता जैन धर्म की अपनी अद्वितीय देन है जो अन्यत्र दुर्लभ है । वस्तुतः जैनधर्म सृष्टि के कर्तृत्व सिद्धान्त को नहीं मानता। उसकी अपनी मान्यता है कि यह विश्व अनादि और अनन्त है । इसे किसी ने न तो बनाया है और न इसका कोई संहारक ही है । यह तो स्वाभाविक प्रक्रिया है । जीव, पुद्गल ( अजीव ) धर्म, अधर्म, आकाश और काल - इन छह द्रव्यों में से जीव और पुद्गल इन दो द्रव्यों का संयोग-वियोग हमेशा होता ही रहता है । इसी का नाम संसार है । जैन धर्म की यह मान्यता विज्ञान सम्मत भी है । ७. संवर : कर्मागमन रूप द्वार जिससे रोका जाय अर्थात् जिन परिणामों से कर्मों का आगमन रुक जाता है उसे संवर कहते हैं । वस्तुतः संवर काहेतु निरोध है और यह संवर आस्रव का प्रतिपक्षी है । आस्रव कर्म ग्राहक अवस्था है तथा संवर कर्म निरोधक अवस्था | इसीलिए कर्म का निरोध करने वाली, कर्म का प्रवेश रोकने वाली आत्मा की अवस्था का नाम संदर है । अयत्नाचारी प्रमादी जीव क्रोधादि के द्वारा कर्मों का आस्रव करता रहता है किन्तु अप्रमादी विद्वान् क्रोधादि के प्रतिपनी क्षमादि गुणों के द्वारा आस्रव रूप कर्मागमन को रोक देता है । वे मिथ्यात्व रूप आस्रव के द्वार को सम्यक्त्व रूपी दृढ़ कपाटों तथा हिंसादि रूप कर्मागमन के द्वार को अहिंसादि दृढ़ महाव्रत रूप फलकों से बंद कर देते हैं । मिथ्यात्व अविरति कषाय और योग-ये चार कर्मागमन के कारण हैं किन्तु इन्हीं से जिन कर्मों का आस्रव होता है उन कर्मों का आगमन सम्यग्दर्शन, विरति परिणाम, कषाय- निग्रह और योग-निरोध से नहीं होता है। ४ J Jain Education International १. पंचास्तिकाय गाथा १२८-१३०. २. कर्मागमनद्वारं संवृणोतीति संवरणमात्रं वा संवरोऽपूर्वकर्मागमन निरोधःमूलाचार वृत्ति ५।६. ३. मूलाचार ५१४३,४२. ४. मिच्छत्ता विरदीहि य कसायजोगेहि जं च आसवदि । दंसणविरमणणिग्गह णिरोधणेहि णेतु णासवदि || वही ५।४४. इस For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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