________________
जैन सिद्धान्त : ५२१ ७. गोत्र-जिसके कारण उच्च तथा नीच कुल में जन्म होता है वह गोत्र कर्म है । इसके दो भेद हैं : उच्च तथा नीच ।' शुभ गोत्र कर्म के उदय से उच्च गोत्र मिलता है तथा अशुभ गोत्र कर्म के उदय से नीच गोत्र मिलता है।
८. अन्तराय-दानादि कार्य में विघ्न उपस्थित करने वाले कर्म को अर्थात् अभीष्ट की उपलब्धि में बाधा पहुँचाने वाले कर्म को अन्तराय कहते हैं । यह कर्म राजा के भण्डारी की तरह होता है । अर्थात् यदि किसी राजा की दान देने की इच्छा होते हुए भी भण्डारी किसी न किसी बहाने से दान नहीं देने देता वैसे ही यह कर्म शुभ कार्यों में विघ्न उपस्थित करता है । दान, लाभ, भोग, उपभोग और वोर्य-इन पांचों में अन्तराय उपस्थित करने से इसके पांच भेद होते हैं--(१) दानान्तराय, (२) लाभान्तराय, ( ३ ) भोगान्तराय, (४) उपभोगान्तराय और (५) वीर्यान्तराय ।
वस्तुतः आत्मा के आठ गुण माने जाते हैं-ज्ञान, दर्शन, सुख, क्षायिकसम्यक्त्व, अटल अवगाहन, अमूर्तिकता, अगुरूलघुता एवं लब्धि---इन आठ गुणों को क्रमशः ज्ञानावरणादि आठ कर्म आवृत करते हैं ।
__ ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय-ये चार धातियाकर्म आत्मा के ज्ञान, दर्शन और शक्ति गुणों को आवृत करते हैं तथा आत्मा की सहजता को प्रकट नहीं होते देते । इन चारों में मोहनीय कर्म सबसे प्रबल है जब तक यह समाप्त नहीं होता तब तक इससे कर्मबन्धन का प्रवाह सतत् चलता रहता है । यही कर्म संसार परिभ्रमण का मुख्य कारण होने से सब कर्मों में प्रधान है। इसको प्रबलता को वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र-ये चार अघातिया कर्म आत्मा की सहजता और निर्मलता की उपलब्धि में बाधक नहीं बनते अतः समय की परिपक्वता के साथ ही ये अपना फल देकर सहज ही अलग हो जाते हैं । ये भुने हुए चने की तरह हैं जिनमें नये कर्मों की उत्पादन क्षमता नहीं होती। अतः ये कर्म परम्परा का प्रवाह बनाये रखने में असमर्थ होते हैं। कुन्दकुन्दाचार्य ने कहा है कि जो जीव संसार में स्थित हैं उनके राग और द्वेष रूप परिणाम होते हैं । परिणामों से नये कर्म बँधते हैं। कर्मों से गतियों में जन्म लेना पड़ता है, जन्म लेने से शरीर होता है, शरीर से इन्द्रियाँ होती है, इन्द्रियों से विषयों का ग्रहण होता है तथा विषयों के ग्रहण से राग-द्वेष रूप परिणाम होते हैं। इस
१. उच्चाणिच्चागोदं--मूलाचार १२।९९७. २. .."दाणं लाभंतराय भोगो य । परिभोगो विरियं चेव अंतरायं च पंचविहं ॥
-वही, १२।१९..
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org