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जैन सिद्धान्त : ५१९ को आवृत करने वाला कर्म ।'
२. दर्शनावरण--पदार्थ का सामान्य अवलोकन भी जिससे नहीं होता अर्थात् आत्मा के दर्शन गुण को आवृत करने वाला दर्शनावरण कर्म है । अतः जब कर्म वर्गणायें आत्मा को दर्शन शक्ति में बाधा डालती हैं तब दर्शनावरणी कर्म का उदय समझना चाहिए । इसके नौ भेद हैं- इनमें निद्रा के निम्नलिखित भेद हैं। (१) निद्रा-सामान्य नोंद अर्थात् श्रमादि दूर करनेके लिए सोना निद्रा है । (२) निद्रा-निद्रा-इस कर्मोदय से कहीं भी निद्रा में सशब्द (बड़बड़ाते हुए) सोना। (३) प्रचला-खड़े या बैठे हुए भी नींद लग जाना । (४) प्रचला प्रचलाचलते-फिरते हुए भी गहरी नोंद आना। इसके तीव्र उदय से बैठे या उठे हुए व्यक्ति के मुख से लार निकलती है। शरीर और मस्तक कांपता रहता है । (५) स्त्यानगृद्धि-इसके उदय से जीव निद्रा में कुछ भी रौद्र कार्य कर सकता है । सोता हुआ भी कहीं भी चलकर जा सकता है फिर भी खबर नहीं रहती अर्थात् संकल्प किये हुए कार्य को नींद में कर डाले वैसी प्रगाढ़तम नींद । दर्शनावरणी कर्म के उदय से ये पाँच प्रकार की निद्रा होती है। (६) चक्षुदर्शनावरण-चक्षु के द्वारा होने वाले दर्शन (सामान्य ग्रहण) का आवरण । (७) अचक्षुदर्शनावरण-चक्षु के सिवाय शेष इन्द्रिय और मन से होने वाले दर्शन का आवरण । (८) अवधिदर्शनावरण-मूर्त द्रव्यों के साक्षात् दर्शन का आवरण । (१) केवल दर्शनावरण-सर्व-द्रव्य-पर्यायों के साक्षात् दर्शन का आवरण ।
। ३. वेदनीय-जिसके कारण जोव सांसारिक सुख-दुःख का अनुभव (संवेदन) करता है वह वेदनीय कर्म है । सातावेदनीय और असातावेदनीय ये इसके दो भेद हैं। इन दोनों का स्वभाव जीवों को क्रमशः सुख और दुःख का अनुभव कराना है।
४. मोहनीय-जो आत्मा को मोहित करता है अथवा जिसके द्वारा आत्मा मोहित होता है वह मोहनीय कर्म है । यह आत्मा के दर्शन और चारित्र गुण का हनन करने वाला कर्म है । यह कर्म मदिरा (शराब) के समान है । जैसे मद्यपान से विवेक शक्ति कुंठित हो जाती है वैसी ही इसके कर्म पुद्गलों से आत्मा की विवेक१. मूलाचार वृत्ति १२।१८७. २. दर्शनावरणस्यार्थानालोकनं-वही, १२।१८४. ३. णिद्दाणिद्दा पयलापयला तह थीणगिद्धि णिद्दा य ।
पयला चक्खू अचक्खू ओहीणं केवलस्सेदं । वही १२।१८८. ४. मूलाचार वृत्ति १२।१८८. ५. सादमसादं दुविहं वेदणियं-मूलाचार १२।१८९.
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