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________________ ५१० : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन पाप से पुण्य अच्छा है । और फिर जब तक शुद्धोपयोग की प्राप्ति नहीं होती, तब तक शुद्धोपयोग के साधक शुभोपयोग रूप पुण्य कर्मों में लगना चाहिए और अशुभ प्रवृत्तियों से बचना चाहिए। क्योंकि शुभ कर्मोदय से यदि जीव अच्छे साधन पा जाता है तो आत्मोन्नति के मार्ग पर अग्रसर होने में देर नहीं लगती है । अशुभ कर्मों के उदय से अच्छे साधन नहीं मिलते और जीव निरन्तर गिरता ही चला जाता है। पाप की अपेक्षा पुण्य को व्यवहार नय की दृष्टि से उपादेय बतलाया है क्योंकि सम्यक्त्व सहित की जाने वाली क्रियाओं से उत्पन्न होनेवाला पुण्य परम्परा से आत्मस्वरूप की प्राप्ति में कारण बनता है । यद्यपि जो जीव तत्त्वार्थ श्रद्धानी हैं वे निज आत्मा को ही उपादेय समझकर उसकी प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना चाहते हैं; तथापि चारित्रमोह के उदय से शुद्धोपयोग की प्राप्ति में असमर्थ होकर परमात्मपद की प्राप्ति के लिए और विषय कषायों से बचने के लिए परमात्मस्वरूप अहंत तथा सिद्ध परमेष्ठी की और उनके आराधक आचार्य, उपाध्याय व साधु परमेष्ठी की तथा उनके गुणों की स्तुति, पूजा आदि करके परमभक्ति करता है। यह उसकी भक्ति मोक्ष प्राप्ति के निमित्त ही होनी चाहिए' संसार सुख के लिए नहीं । ५. आस्रव : ____ आस्रव कर्मग्रहण करने वाली आत्मा की अवस्था है। पुण्य-पाप आदि रूप कर्मों के आगमन के द्वार को आस्रव कहते हैं । जैसे नदियों द्वारा समुद्र प्रतिदिन जल से भरता रहता है वैसे ही मिथ्यादर्शनादि स्रोतों से आत्मा में कर्म आते रहते हैं । हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह ये पाँच पाप आस्रवों के द्वार हैं । इनसे आत्मा में कर्मों का आगमन होता है। कर्मों के इन आगमन द्वारों को आस्रव कहा है । पाँच पापों से जीव का निश्चय ही विनाश होता है क्योंकि जैसे नाव में छेद होने से उसमें पानी का आगमन होता है और नौका समुद्र में डूब जाती है वैसे ही जीव कर्मास्रवों के कारण संसार समुद्र में डूबा रहता है । क्रोध, मान, माया और लोभ-ये दुष्ट अभिप्राय धारण करनेवाले अर्थात् पापास्रव को उत्पन्न करने वाले कषायरूपी शत्रु हैं । इनसे जीवों में हजारों दोष उत्पन्न होते हैं जिनके १. संयम प्रकाश : उत्तरार्द्ध द्वितीय किरण पृ० ६३-६४ का सार । २. तत्त्वार्थवार्तिक १।४।१६-२६. ३. हिंसादिएहिं पंचहिं आसवदारेहिं आसवदि पावं । तेहितो धुव विणासो सासवणावा जह समुद्दे ।। मूलाचार ८१४६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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