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जैन सिद्धान्त : ५०७
९. दर्शन मार्गणा : सामान्य विशेषात्मक आत्मस्वरूप को ग्रहण करने वाले को दर्शन कहते हैं । चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवल ये दर्शन के चार भेद हैं । "
१०. लेश्या मार्गणा : आत्मा को कर्म के साथ संबंधित करने वाली लेश्या है अर्थात् कषायानुरंजित योगप्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं । कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल ये लेश्या के छह भेद हैं ।
११. भव्य मार्गणा : सम्यग्दर्शनादिको ग्रहण करने की योग्यतावाला जीव भव्य हैं, उसके विपरीत जीव को अभव्य कहते हैं ।
१२. सम्यक्त्व मार्गणा : तत्त्वरुचि को सम्यक्त्व कहते हैं । प्रशम, संवेग, अनुकंपा और आस्तिक्य से यह प्रगट होता है । इसके क्षायिक, क्षायोपशिमक और औपशमिक ये तीन भेद हैं । मिथ्यादर्शन, सासादन तथा सम्यक् मिथ्यात्व - इन तीन विपरीत भेदों को मिलाने से छह भेद होते हैं । सम्यग्दर्शन आत्म-सत्ता की आस्था है; जड़ और चेतन में भेद दिखाना ही इसका वास्तविक उद्देश्य है ।
१३. संज्ञी मार्गणा : संज्ञी अर्थात् मन सहित जीव । मन विवेक शक्ति को जागृत करता है जो आत्मज्योति को प्राप्त कराने में कारण है । अतः शिक्षा, क्रिया, उपदेशों आदि को ग्रहण करने वाला जीव संज्ञी है ।
पुद्गल पिण्ड को ग्रहण करना द्रव्यात्मक देह, वचन और मन जो ग्रहण होता है उसे आहार
१४. आहार मार्गणा : शरीर के योग्य आहार है । शरीर नामक नामकर्म के उदय से बनने के योग्य पुद्गल की नोकवर्गणाओं का कहते हैं ।
इस प्रकार इन चौदह मार्गणाओं के अन्तर्गत जीवों का अन्वेषण किया जाता है । यह जीव इनमें अनादिकाल से घूम रहा है ।
मार्गणा-विवेचन के बाद यह जानना भी जरूरी है कि मार्गगा के द्वारा जीवों के भेदों का कथन किस प्रकार किया जाता है ? काय मार्गणा की अपेक्षा से जीवों के त्रस और स्थावर ये दो भेद हैं । योग, गति, वेद, कषाय और इन्द्रिय- इनकी दृष्टि से भी जीव के अनेक (बहुविध ) भेद हैं । इन भेदों का कथन उन-उन मार्गणाओं के विवेचन में किया जा चुका है। ज्ञान, दर्शन, संयम, लेश्या, सम्यक्त्व, संज्ञा और आहार इन सबके भेद से भी जीव के बहुत १. प्रकाशवृत्तिर्दर्शनं — मूलाचारवृत्ति १२।१५६.
२. आत्मप्रवृत्तिसंश्लेषकरी लेश्या कषायानुरंजिता योगप्रवृत्तिर्वा -- मूलाचारवृत्ति
१२।१५६.
३. गोम्मटसार जीवकाण्ड ६६३.
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