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________________ प्रास्ताविक : ३ निषेधपरक आचार का प्ररूपण भले ही कठोर एवं लोकोत्तर सा प्रतीत हो, किन्तु इतना व्यवस्थित, शास्त्रीय एवं सहज निर्वचन अन्य साध्वाचारपरक ग्रन्थों में उपलब्ध नहीं होता। विषय परिचय मूलाचार में बारह अधिकार हैं । जिनमें कुल मिलाकर १२५२ गाथाएँ हैं । इसके बारह अधिकार इस क्रम से हैं : मूलगुण, बृहत्प्रत्याख्यान-संस्तरस्तव, संक्षेप-प्रत्याख्यान, समाचार, पंचाचार, पिण्डशुद्धि, षडावश्यक, द्वादशानुप्रेक्षा, अनगार-भावना, समयसार, शीलगुण और पर्याप्ति । प्रत्येक अधिकार के प्रतिपाद्य विषयों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत है : १. मूलगुणाधिकार : इसमें छत्तीस गाथाएं हैं। सर्वप्रथम मंगलाचरण पूर्वक विषय प्रतिपादन की घोषणा की गई है तथा श्रमणों के अट्ठाईस मूलगुणों का कथन किया गया है। तदनन्तर पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पंचेन्द्रिय निरोध, षडावश्यक, लोच, अचेलकत्व, अस्नान, क्षितिशयन, अदन्तधावन, स्थितभोजन और एकभक्त-इन अट्ठाईस मूलगुणों की सारभूत परिभाषाएँ प्रस्तुत की गई हैं । अचेलकत्व मूलगुण के अन्तर्गत शरीर ढकने के लिए वस्त्र, अजिन (चमड़ा), वल्कल, तृण, पत्ते, आभूषण आदि के धारण का निषेध करके निर्ग्रन्थ (नग्न) वेश धारण करने को अचेलकत्व कहा है । मुलगुणों के पालन से मिलने वाले मोक्षफल के कयन के बाद अधिकार की समाप्ति की गयी है। २. वृहत्प्रत्याख्यान-संस्तरस्तव अधिकार : इसमें कुल इकहत्तर गाथाएँ हैं, जिनमें श्रमण को सभी पापों का त्यागकर मृत्यु के समय दर्शन आदि चार आराधनाओं में स्थिर रहने, क्षुधातृषा आदि परिषहों को समता भाव से सहने तथा निष्कषाय होकर प्राण त्याग करने का उपदेश है । प्रत्याख्यान विधि बताते हुए प्रत्याख्यान करने वाले के मुख से कहलाया गया है कि जो कुछ मेरी पापक्रिया है उस सबका मन, वचन, काय से त्याग करता हूँ और समताभाव रूप निर्विकल्प एवं निर्दोष सामायिक करता हूँ। सब तृष्णाओं को छोड़कर मैं समाधिभाव अंगीकार करता हूँ। सब जीवों के प्रति मेरा क्षमा-भाव है तथा सब जीव मेरे ऊपर क्षमाभाव करें। मेरा सब प्राणियों पर मैत्री भाव है, किसी से भी मेरा वैर नहीं है । इसके अतिरिक्त चार संज्ञाओं, तैतीस आसादनाओं, श्रमण की मनोभावनाओं के वर्णन के साथ-साथ मरण के भेद यथा मरण-समय णमोकार मन्त्र के चिन्तन आदि के करने का भी प्रतिपादन किया गया है । ३. संक्षेपप्रत्याख्यानाधिकार : चौदह गाथाओं वाले इस अधिकार में व्याघ्रादि-जन्य आकस्मिक मृत्यु के उपस्थित होने पर पांच पापों के त्याग पूर्वक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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