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४२८ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन वन्दना करें तो श्रमण को उनके लिए 'नमोऽस्तु' शब्द न कहकर 'समाधिरस्तु या कर्मक्षयोऽस्तु' कहना चाहिए। आर्यिका और श्रमण : परस्पर सम्बन्धों की मर्यादा :
जैनाचार्यों ने श्रमण संघ को निर्दोष एवं सदा अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए अनेक दृष्टियों से स्त्रियों के संसर्ग से चाहे वह आर्यिका भले ही हो, दूर रहने का "विधान किया है । यही कारण है कि श्रमण संघ आज भी बिना किसी बाधा या अपवाद के अपनी अक्षुण्णता बनाये हुए है ।
श्रमणों और आयिकाओं का सम्बन्ध (परस्पर व्यवहार) धार्मिक कार्यों तक ही सीमित है। कुछ आर्यिकायें एक साथ मिलकर श्रमण से अध्ययन 'शंकासमाधान आदि कार्य कर सकती हैं, अकेले नहीं । अकेले श्रमण और आर्यिका को परस्पर बातचीत तक का निषेध है । कहा भी है कि तरुण श्रमण किसी भी तरुणी आर्यिका या अन्य किसी स्त्री से कथा-वार्तालाप न करे। यदि इसका उल्लंघन करेगा तो आज्ञाकोप, अनवस्था (मूल का ही विनाश), मिथ्यात्वाराधना, आत्मनाश और संयम-विराधना-इन पाप के हेतुभूत पाँच दोषों से दूषित होगा। अध्ययन या शंका-समाधान आदि धार्मिक कार्य के लिए आर्यिकायें या स्त्रियाँ यदि श्रमण संघ आयें तो उस समय श्रमण को वहाँ अकेले नहीं ठहरना चाहिए
और बिना प्रयोजन वार्तालाप नहीं करना चाहिए किन्तु कदाचित् धर्मकार्य के प्रसंग में बोलना भी ठीक है । एक आर्यिका कुछ प्रश्नादि पूछे तो अकेला श्रमण उसका उत्तर न दे, अपितु कुछ श्रमणों के सामने उत्तर दे। यदि आर्यिका गणिनी के साथ या उसे आगे करके कोई प्रश्न पूछे तब अकेले श्रमण उसका उत्तर दे सकता है अर्थात् मार्ग-प्रभावना की इच्छा रखते हुए प्रश्नोत्तरों आदि का प्रतिपादन करना चाहिए, अन्यथा नहीं । ___ आर्यिकाओं को वसतिका में श्रमणों को नहीं ठहरना चाहिए, वहाँ क्षणमात्र
१. मुनि जनस्य स्त्रियाश्च परस्परं वन्दनापि न युक्ता । यदि ता वन्दन्ते तदा
मुनिभिर्नमोऽस्त्विति न वक्तव्यं, कि तर्हि वक्तव्यं ? समाधिकर्मक्षयो
स्त्विति- मोक्षपाहुड गाथा १२ को श्रुतसागरीय टीका. २. मूलाचार ४।१७९ वृत्ति सहित । ३. वही ४।१७७ वृत्ति सहित । ४. तासिं पुण पुच्छाओ इक्किस्से णय कहिज्ज एक्को दु । गणिणी पुरओ किच्चा जदि पुच्छइ तो कहेदव्वं ।।
-वही वृत्ति सहित ४।१७८.
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