SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 477
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२६ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन करना, गीत गाना आदि कार्य उन्हें निषिद्ध हैं ।" असि, मषि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प और लेखन कार्य - ये जीवघात के हेतुभूत छह प्रकार को आरम्भ क्रियायें हैं । पानी लाना, पानी छानना ( छेण), घर को साफ करके कूड़ा-कचरा उठाना - फेंकना, गोबर से लीपना, झाड़ू लगाना और दीवालों को साफ करना - ये जीवघात करने वाली छह प्रकार की आरम्भ क्रियायें भी आर्यिकायें नहीं करतीं । रे मूलाचार के पिण्डशुद्धि अधिकार में आहार सम्बन्धी उत्पादन के सोलह दोषों के अन्तर्गत धायकर्म, दूतकर्म आदि कार्य भी इन्हें निषिद्ध हैं । श्वेताम्बर परम्परा के गच्छाचारपइन्ना ग्रंथ में कहा है' आर्यिका गृहस्थी सम्बन्धी कार्य जैसे -- सीना, बुनना, कढ़ाई आदि कार्यों को और अपनी या दूसरे की तेल मालिश आदि कार्य करती हैं वह आर्यिका नहीं हो सकती । जिस गच्छ - में आर्यिका गृहस्थ सम्बन्धी जकार, मकार, आदि रूप शासन की अवहेलना सूचक शब्द बोलती है वह वेश- विडम्बनी तथा अपनी आत्मा को चतुर्गति में घुमाने वाली है । " आहारार्थ गमन विधि : आहारार्थं भिक्षा के लिए वे आर्यिकायें तीन, पाँच अथवा सात की संख्या में स्थविरा ( वृद्धा) आर्थिका के साथ मिलकर उनका अनुगमन करती हुई तथा परस्पर एक दूसरे के रक्षण ( सँभाल ) का भाव रखती हुई समितिपूर्वक आहारार्थ निकलती हैं । देव वन्दना आदि कार्यों के लिए भी उपर्युक्त विधि से गमन करना चाहिए ।" आर्यिकायें दिन में एक बार सविधि बैठकर करपात्र में आहार ग्रहण करती हैं ।' गच्छाचार पइन्ना में कहा हैकार्यवश लघु आर्या मुख्य आर्या के पीछे रहकर अर्थात् स्थविरा के पीछे बैठकर. १. रोदणण्हावणभोयणपयणं सुत्तं च छव्विहारंभ | विरदाण पादमक्खण धोवणगेयं च ण य कुज्जा | मूलाचार ४।१९३. २. असिमषिकृषिवाणिज्य शिल्पलेख क्रियाप्रारम्भास्तान् जीवघातहेतून - मूलाचार वृत्ति ४। १९३.... ३. पाणियणयणं छेणं गिहवोहरणं च गेहसारमणं । कुड्डावलिप्पणं कुड्डविदे एदंतु छव्विहारंभो || कुन्द० मूलाचार ४।७४. ४. गच्छाचार पइन्ना ११३. ५. वही ११०. ६. विष्णि व पंच व सत्त ब अज्जाओ अण्णमण्णरक्खाओ । हिं सतरिदा भिक्खाय समोदरन्ति सदा ।। मूलाचार ४। १९४. ७. वही वृत्ति. ८. सुत्तपाहुड श्रुतसागरीय टीका २२. तथा दौलत क्रियाकोश । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy