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४२४ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
दो हाथ का, दो वस्त्र तीन हाथ के और एक वस्त्र चार हाथ का। किन्तु ये वस्त्र श्वेत रंग के ही होने चाहिए श्वेत वस्त्र छोड़कर विविध रंगों आदि से विभूषित जो वस्त्र धारण करती है वह आर्या नहीं अपितु शासन की अवहेलना करते वाली वेष-विडम्बनी है।२
कदाचित् वस्त्र-त्याग का भी विधान : सागार धर्मामृत में कहा है कि (जिनेन्द्रदेव ने स्त्री का जो औत्सगिक लिंग या अन्य पद आदि कहा है वह उसके संस्तर पर आरोहण के समय मृत्यु काल में तथा एकान्त वसतिका आदि स्थान में वस्त्र मात्र का भी परित्याग कर सकती है।'
वसतिका :
गहस्थों के मिश्रण से रहित वसतिका, जहाँ परस्त्री-लंपट, चोर, दृष्टजन तिर्यञ्चों एवं असंयत जनों का सम्पर्क न हो, साथ ही जहाँ यतियों का निवास या उनकी सन्निकटता न हो, असंज्ञियों ( अज्ञानियों ) का आना-जाना न हो ऐसी संक्लेश रहित, बाल, वृद्ध आदि सभी के गमनागमन योग्य, विशुद्ध संचार युक्त प्रदेश में दो, तीन अथवा इससे भी अधिक संख्या में एक साथ मिलकर आयिकाओं को रहना चाहिए। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार जहाँ मनुष्य अधिक एकत्रित होते हों-ऐसे राजपथ-मुख्यमार्ग, धर्मशाला और तीन-चार रास्तों के संगम स्थल पर आर्यिकाओं को नहीं ठहरना चाहिए । खुले स्थान पर तथा बिना फाटक वाले स्थान पर भी नहीं रहना चाहिए।५ जिस उपाश्रय के समीप गृहस्थ रहते हों वहाँ साधुओं को नहीं रहना चाहिए किन्तु साध्वियाँ रह सकती हैं ।
१. आचारांग सूत्र २।५।१४१. २. गच्छाचार पइन्ना ११२. ३. यदौत्सर्गिकमन्यद्वा लिङ्गमुक्तं जिनं स्त्रियाः । पुंवत्तदिष्यते मृत्युकाले स्वल्पीकृतोपधेः ।।
-सागारधर्मामृता ८।३९. ज्ञानदीपिका टीका सहित । ४. अगिहत्थमिस्सणिलये असण्णिवाए विशुद्धसंचारे । दो तिण्णि व अज्जाओ बहुगीओ वा सहत्थंति ॥
-मूलाचार ४।१९१ वृत्तिसहित । ५. बृहत्कल्प भाष्य उ० ११२, २।११, १. ६. बृहत्कल्प सूत्र प्रथम उद्देश प्रतिबद्धशय्यासूत्र (जै० सा० का वृ० इति.
भाग २. पृ० २४१).
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