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गाथायें निग्रन्थ धर्म में सामान्य रूप से मान्य थीं, दिगंबरत्व अथवा श्वेतांब रत्व की छाप उन पर नहीं लगी थी ।
मूलाचार - एक महत्वपूर्ण प्राचीन कृति :
मूलाचार का अध्ययन हमें अतीत के उस छोर की ओर ले जाता है जब निग्रन्थ श्रमण संस्कृति अपने पैरों पर खड़ा होना सीख रही थी । प्रस्तुत शोध प्रबन्ध में श्रमणों के मूलगुण, उत्तरगुण, उनकी आहारचर्या - भिक्षाकाल, आहारागमन-विधि, आहार शुद्धि, आहार सम्बन्धी दोष, विहारचर्या - विहारयोग्य क्षेत्र, रात्रिविहार का निषेध, नदी आदि जलस्थानों की यात्रा, वसति, एकाकी बिहार का निषेध, व्यवहारचर्या, श्रमणों का पारस्परिक व्यवहार, वर्षावास, श्रमण संघ - श्रमणसंघ का स्वरूप, संघ का महत्त्व, संघ व्यवस्था, संघ के आधार, चातुर्वण्य संघ, अनगार भावना के दस सूत्र, अनगार के प्रकार; आर्यिकाओं की आचार पद्धति - चतुविध संघ में आर्यिकाओं का स्थान, आर्यिकाओं का वेष, आहारार्थं गमन-विधि, आर्यिका और श्रमण आदि विषयों का सांगोपांग विवेचन किया गया है । निश्चय ही यह सब सामग्री भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित निर्ग्रन्थ परंपरा का समाजशास्त्रीय, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं मनोवैज्ञानिक अध्ययन करने के लिये अत्यन्त उपयोगी है । 'मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन' नामक इस कृति के लेखक डॉ० फूलचन्द जैन प्रेमी ने मूल विषय का विवेचन करते हुए बीच-बीच में महत्त्वपूर्ण श्वेतांबरीय ग्रन्थों के तुलनात्मक उद्धरण प्रस्तुत किये हैं, जिससे ग्रन्थ की प्रामाणिकता बढ़ जाती है । आशा है वे भविष्य में इस प्रकार की अन्य समीक्षात्मक रचनाओं को प्रस्तुत कर जैनधर्म के प्राचीन इतिहास को उजागर करेंगे |
२८ शिवाजी पार्क, बम्बई- २८ १० जून, १९८८
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प्रो० डॉ० जगदीशचन्द्र जैन
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