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________________ ( १२ ) साक्षात् सान्निध्य में मुझे जैन श्रमणों के आचार विचार एवं व्यवहार से सम्बन्धित विभिन्न विषयों को समझने, सीखने एवं शुभाशीष प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। साथ ही इन सबके साहित्य से भी पूरा लाभ लेने का सुअवसर प्राप्त किया। मैं सभी के प्रति पूर्ण आदर सहित कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ। जैन जगत् के विद्वत् शिरोमणि सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र जी शास्त्री, सि. आ. पं. कैलाशचन्द जी शास्त्री एवं पं० जगन्मोहनलाल जी सिद्धांतशास्त्री-ईन तीनों गुरुजनों के सान्निध्य में लम्बे समय तक रहकर मुझे जैन शास्त्रों के अध्ययन का सौभाग्य मिला है। इस ग्रन्थ की समृद्धि में इनके सान्निध्य, विचारों एवं प्रेरणाओं का बहुमूल्य हाथ है और प्रस्तुत प्रबन्ध के प्रणयन में प्रारम्भ से अन्त तक इनका मार्गदर्शन एवं प्रोत्साहन प्राप्त रहा है। विषय विवेचन में जब कभी मुझे कठिनाई हुई इनसे और इनकी कृतियों से सदा उदारता पूर्वक साहाय्य मिला। मैं इन सबका बहुत उपकार मानता हूँ। श्रद्धेय स्व० पं० कैलाशचन्द जी का पुण्यस्मरण कैसे भुलाया जा सकता है जिनके विराट व्यक्तित्व और कर्तृत्व ने मुझे मूलाचार जैसे ग्रन्थ के गुरुतर अध्ययन को प्रस्तुत करने का बल प्रदान किया। शोध कार्य के समय भी टाइप कराने से पूर्व आ. पं. जी ने इसे पढ़ा था तथा अब भी प्रकाशन के समय आपने इसे देख लिया था ताकि सैद्धान्तिक दृष्टि से कोई त्रुटि न रह जाए । ___ काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से पी-एच. डी. उपाधि हेतु १९७६ में प्रस्तुत इस शोध-प्रबन्ध-परीक्षण के समय श्रद्धय डॉ० नथमल जी टाटिया. लाडन एवं प्रो० दलसुखभाई जी मालवणिया, अहमदाबाद ने इसका गहगई से अवलोकन कर इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। पाश्वनाथ विद्याश्रम में जब कभी आ० प्रो० मालवणिया जी पधारे, मुझे उनसे और जैन विश्व. भारती, लाडन में आ० डॉ० टाटिया जी से बराबर सत्परामर्श प्राप्त हुए, जो मेरे इस अध्ययन में बहुत सहायक सिद्ध हुए। इस ग्रन्थ को प्रकाशित करने तथा परिपूर्ण बनाने में पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान के निदेशक डॉ. सागरमल जी जैन का मैं अत्यन्त आभारी हूँ, जिन्होंने उदारता एवं आत्मीयता पूर्वक इसके प्रकाशन की स्वयं पहल करके मुझे प्रोत्साहित किया और परिवर्तन, परिवर्धन तथा पुनर्लेखन के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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