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________________ ( ११ ) सम्पूर्ण कार्य में मुझे आत्मसंतोष, आनन्द एवं गौरव के साथ ही अपने इस जीवन की सार्थकता अनुभूत हुई। यह मेरा सौभाग्य है कि प्राकृत, संस्कृत, पालि, अपभ्रंश आदि भाषाओं के अनेक मनीषी सन्तों एवं विद्वानों ने प्रकाशन के पूर्व एवं बाद में इस ग्रन्थ का अवलोकन कर इसकी सराहना की है। वस्तुतः मूलाचार का यह गुरुतर अध्ययन प्रस्तुत करने का साहस पूज्य आचार्यो', मुनियों, विद्वानों एवं आत्मीयजनों से ही प्राप्त हुआ है। सर्वप्रथम उन महान् पूर्वाचार्यो, वर्तमान आचार्यो', मुनियों एवं विद्वानों के प्रति अपनी हार्दिक कृतज्ञता एवं श्रद्धा व्यक्त करता हूँ जिनकी अमूल्य कृतियों से मैं इस अध्ययन में लाभान्वित हुआ हूँ। ____ परम पूज्य आचार्यश्री विद्यासागर जी एवं इनके विशाल संघ के प्रति अत्यन्त श्रद्धावनत हूँ, जिनके सान्निध्य, सत्परामर्श, शुभाशीष एवं प्रोत्साहन से निरन्तर लाभान्वित हुआ। दि० २-१-१९८८ को पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान के स्वर्ण जयन्ती समारोह एवं अ० भा० प्राकृत एवं जैन विद्या परिषद् के प्रथम अधिवेशन के अवसर पर केन्द्रीय संसदीय कार्यमंत्री श्रीमती शीला दीक्षित के द्वारा इस ग्रन्थ के भव्य विमोचन के बाद इसकी एक प्रति आचार्यश्री के अवलोकनार्थ एवं शुभाशीष हेतु ललितपुर भेजी थी। आचार्यश्री ने कृपा करके अपने संघ के कुछ विद्वान्मनियों के साथ इस ग्रन्थ को कई दिनों तक गहराई से देखा और अपार प्रसन्नता व्यक्त करते हुए इसके तुलनात्मक अध्ययन, विषय प्रतिपादन आदि अनेक दृष्टियों से इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की और शुभाशीष प्रदान किया । इससे मेरा उत्साह द्विगुणित हुआ और मैंने अपने श्रम की सार्थकता समझी। परम पूज्य आचार्यश्री धर्मसागर जी, आ• श्री देशभूषण जी, आ० श्री विमल सागर जी, आ. श्री विद्यानंद जी, आ० श्री अजित सागर जी आदि तथा इनके संघस्थ मुनियों और आचार्यकल्प श्रुतसागर जी, आयिका रत्न ज्ञानमती माता जी, क्ष ल्लक जिनेन्द्र वर्णी जी, सन्मति सागर जी, गुण सागर जी आदि अनेक दिगम्बर परम्परा के सन्तों एवं श्रद्धेय आचार्यश्री तुलसी जी, उपाध्याय अमर मुनि जी, युवाचार्य महाप्रज्ञ जी, मुनि श्री दुलहराज जी, मुनि श्रीचन्द्र जी कमल, मुनि श्री महेन्द्रकुमार जी आदि तथा साध्वी-प्रमुखा कनकप्रभा जी आदि अनेक श्वेताम्बर परम्परा के सन्तों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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