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________________ प्रस्तुति एस करेमि पणामं जिणवरवसहस्स बड्ढमाणस्स । सेसाणं च जिणाणं सगणमणधराणं च सव्वेसि ।। मूलाचार ३११ । भारतीय संस्कृति का अनुशीलन करने के लिए श्रमण परंपरा का सम्पूर्ण अध्ययन आवश्यक है । श्रमणधारा कम से कम उतनी प्राचीन तो है ही जितनी वैदिकधारा । अब पुरातात्त्विक, भाषावैज्ञानिक एवं साहित्यिक अन्वेषणों के आधार पर अनेक विद्वान् यह भी मानने लगे हैं कि आर्यों के आगमन के पूर्व भारत में जो संस्कृति थी, वह श्रमण, निग्रन्थ, व्रात्य या आहंत संस्कृति होनी चाहिए। यह संस्कृति सुदूर अतीत में जैनधर्म के आदि तीर्थंकर वृषभ या ऋषभदेव द्वारा प्रवर्तित हुई। श्रमणधारा ने वैदिकधारा को और वैदिकधारा ने श्रमणधारा को प्रभावित किया है । आज भारतीय संस्कृति का जो रूप मिलता है उसमें वैदिक तथा श्रमण (जैन एवं बौद्ध) धारा रस्सी की तरह एक में बँटी हुई हैं। इन धाराओं में परस्पर बहुत आदान-प्रदान हुआ है। श्रमण संस्कृति अपनी जिन विशेषताओं के कारण गरिमा-मण्डित रही है, उनमें श्रम, संयम और त्याग जैसे आध्यात्मिक आदर्शों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण ही इस संस्कृति ने अपनी पहचान एवं अपना गौरवपूर्ण अस्तित्व अक्ष ण्ण रखा। श्रमण संस्कृति का आचार पक्ष प्रारम्भ से ही उच्च आदर्श की पराकाष्ठा का प्रतीक रहा है। यह संस्कृति पुरुषार्थ प्रधान होने से इस में सदा से ही आचार का अत्यधिक महत्त्व रहा है । वस्तुतः हमारा जीवन-व्यवहार धर्म से शासित होता है और धर्म का महत्त्व उसके आचार पर निर्भर करता है। आचार मार्ग के प्रतिपादन में ही धर्म का धर्मत्व सन्निविष्ट होता है। जैन धर्म में आचारमार्ग दो भागों में विभक्त है-श्रमणाचार और श्रावका. चार । श्रमणाचार मोक्ष का साक्षात् मार्ग है और श्रावकाचार परम्परया । आचार के इन दोनों पक्षों से सम्बन्धित वितुल जैन वाङमय प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, कन्नड़, तमिल तथा विभिन्न देशी भाषाओं में उपलब्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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