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________________ अभिमत सिद्धान्ताचार्य पं. जगन्मोहनलाल शास्त्री, कटनी दिगम्बर जैन श्रमणचर्या के मूलग्रन्थ मूलाचार पर डॉ. फूलचन्द्र जैन प्रेमी का यह शोध प्रबन्ध देखकर प्रसन्नता हुई। इसमें प्रतिपादित सभी विषयों पर डॉ. प्रेमी ने अपनी पैनी दृष्टि से समीक्षात्मक व तुलनात्मक दष्टि से जैन परंपराओं में प्रतिपादित श्रमणचर्या के भेद-प्रभेदों की विभिन्न धाराओं का निष्कर्ष प्रतिपादित किया है। __ चौरासी लाख योनियों में यह जीव कर्मदण्ड के फलस्वरूप भ्रमण कर रहा है और इसी से दुःखी है । इस जाल से निकल जाय तो वही मुक्ति है । मूलाचार का मूल उद्देश्य यही है । पंच पाप का सर्वथा त्याग इसका मूल पुरुषार्थ है । पाँच समितियाँ उसकी साधक सत्प्रवृत्ति रूप हैं। पंचेन्द्रिय दमन और त्रिगुप्ति उनके साधन हैं । इनके साथ इस शरीर से ही साधना करनी पड़ती है अतः इस पर नियंत्रण करने को ही इसके शृंगार का त्याग , एक भोजन, नग्नता आदि सात गुण और भी हैं। नग्नता भेष नहीं है, वह तो जन्मजात है । उस पर आवरण आदि हम बाद में करते हैं। जो-जो करते हैं उनसे इसके भेष नाना प्रकार बनते हैं ... किन्तु सभी भेषों का उतार फेंकना ही नग्नता है । यह वस्तु स्वरूप स्वाभाविक है। कृत्रिम भेष नहीं, अकृत्रिम-स्वाभाविक है। इसे परमहंस के रूप में हिन्दू धर्म ने प्रतिष्ठा दी है । श्वेताम्बर ग्रन्थों में भी इसे ही साधुता का श्रेष्ठ रूप माना है। विद्वान् लेखक 'ने मूलाचार का आलोडन कर इसका समीक्षात्मक अध्ययन प्रस्तुत करते हुए श्रमण के मूलगुण-उत्तरगुण, उनके आन्तरिक तथा व्यावहारिक आचार-विचार, व्यवहार, श्रमण-श्रमणियों के भेद-प्रभेद तथा जैन धर्म-दर्शन के सिद्धान्तों का विस्तृत परिचय देकर स्तुत्य कार्य किया है। इस श्रेष्ठ कृति के लिए विद्वान् लेखक साधुवादाहं हैं। मेरा इन्हें शुभाशीष है कि वे जीवन के सभी क्षेत्रों में बढ़े और स्व-पर कल्याण करने में समर्थ हों। -जगन्मोहनलाल शास्त्री षट्खण्डागम वाचना समारोह, दमोह दि. १६.६-१९८८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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