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६८ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
इस प्रकार पांच महाव्रतों के विवेचन में श्रमणधर्म के प्राणस्वरूप अहिंसा महाव्रत का प्राधान्य ही दृष्टिगोचर होता है । इसी की विशुद्धि के लिए प्रायः सम्पूर्ण आचार-विचार का प्रतिपादन भी हुआ है । श्रमण की प्रत्येक आचारमूलक क्रिया अहिंसापरक होती है।
अहिंसा आदि पाँच महाव्रत एक दूसरे के पूरक और सहयोगी हैं क्योंकि इनके विपरीत पांच अवतों में से किसी एक का भी आचरण करने वाला शेष अव्रतों के आचरण से बच नहीं सकता । परिग्रह रखने वाला हिंसा से नहीं बच सकता और न हिंसा करने वाला परिग्रह से । वस्तुतः इन सबके मूल में राग और द्वेष-ये दो विकारी प्रवृत्तियाँ काम करती हैं। हिंसा आदि तो उनके पर्याय हैं। इन्हीं दोनों से प्रेरित होकर जो पुरुष परिग्रह की आकांक्षा करता है वह हिंसादि सभी अव्रतों का भी स्पर्श करता है। अमृतचंद्रसूरि ने कहा है- रागभाव हिंसा हैं, अतः असत्य, चोरी, कुशील एवं परिग्रह भी रागादिभाव रूप होने से हिंसा ही है। पांच पाप (अवत) रूप कथन तो मात्र समझाने के लिए किया गया है। पांच महाव्रतों की प्राप्ति तथा उनका पालन एक साथ होता है अलग अलग नहीं। इस तरह ये महाव्रत एक साथ ही घटित होते हैं तथा एकसाथ भंग भी होते हैं । अतः सभी महाव्रतों के परिपालन में ही श्रमणाचार की पूर्णता देखी जा सकती है। समिति:
श्रमण धर्म निवृत्ति प्रधान है। फिर भी जीवन चर्या के निर्विघ्न संचालन हेतु नित्य के कार्यों में प्रवृत्ति का आश्रय भी आवश्यक होता है । क्योंकि श्रमण को चलना, फिरना, उठना, बैठना, बोलना, आहार लेना, कमण्डलु, आदि उठाना-रखना, तथा मल-मूत्र विसर्जन आदि क्रियायें भी करनी पड़ती हैं । अतः इन प्रवृत्तियों को प्रमाद रहित यत्नाचार पूर्वक सम्पन्न करना ही समिति है । ___ अहिंसा आदि महाव्रतों को स्थित करने के उद्देश्य से इन क्रियाओं में विवेकपूर्वक सम्यक् प्रवृत्ति द्वारा जीवों की रक्षा करना तथा प्रयत्नपूर्वक सदा जीवों के रक्षण की भावना रखना ‘समिति' है। वस्तुतः जबतक इस संसार में रहना है-इन क्रियाओं के बिना जीवन संभव नहीं। इन क्रियाओं में जीवहिंसा भी हो सकती है। पर अयत्नाचार का शमन तथा विशुद्ध प्रवृत्तियों के आचरण से ही श्रमण अपने अहिंसा आदि महाव्रतों की रक्षा और उनका पोषण कर सकता है । इस दृष्टि से मन की एकाग्रता, विशुद्धता, संयम की दृढ़ता एवं चारित्रिक विकास हेतु समितियों का आचरण आवश्यक है । कहा भी है जीव १. पुरुषार्थ सिद्धयुपाय ४२.
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