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६६ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
पाँच महावतों की ये पच्चीस भावनायें हैं । मूलाचार में इनके माहात्म्य में लिखा है कि जो श्रमण इन भावनाओं को सदा भाता है, गाढ़ निद्रा में भी वह पांच महाव्रतों की किंचित् भी विराधना नहीं कर सकता, तब फिर जाग्रत श्रमण की तो बात ही और है। अतः श्रमणों को इनका अप्रमत्त रूप से मनन करना चाहिए । तभी सम्पूर्ण व्रतों का अखण्ड और निर्दोष पालन किया जा सकता है।'
उपर्युक्त पाँच महाव्रतों का प्रचलन भगवान् महावीर की परम्परा से माना जाता है। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा में चातुर्याम धर्म की मान्यता थी। इस परम्परा में ब्रह्मचर्य की स्वतन्त्र महाव्रत के रूप में गणना नहीं थी अपितु इसे अपरिग्रह के ही अन्तर्गत माना था । पूर्वप्रचलित चातुर्याम में भगवान महावीर ने स्वतंत्र रूप से ब्रह्मचर्य को पंचम महाव्रत के रूप में प्रचलित किया और तब से जैनधर्म पञ्चयाम धर्म बना । बौद्ध पिटकों के अन्तर्गत दीघनिकाय के सामञफलसुत्त में भ० पार्श्वनाथ के चातुर्याम धर्म का उल्लेख भ्रमवश निग्गंथनात पुत्त (भगवान् महावीर) के नाम से किया गया मिलता है भगवान् महावीर को पांचवें ब्रह्मचर्य महाव्रत का भी इसलिए अलग से स्पष्ट प्रतिपादन करना आवश्यक हो गया क्योंकि प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव के समकालीन साधु सरल तथा अल्पबुद्धि थे। अन्तिम तीथंकर भगवान् महावीर के समकालीन मुनि वक्र और मन्दबुद्धि थे तथा मध्यवर्ती बाईस तीथकरों के साधु सरल और प्राज्ञ थे। प्रथम तीर्थंकर के समय तो मानव सभ्यता का उदयकाल था अतः बाह्याडम्बरों से ज्यादा परिचय भी नहीं था। किन्तु मध्यवर्ती तीर्थंकरों के साधुओं के समक्ष संयमधर्म का मार्ग स्पष्ट था। अपरिग्रह महाव्रत के स्वरूप के ही अनुसार वे अन्तर्बाह्य सभी प्रकार के परिग्रहों का मन, वचन और काय से ग्रहण करना अनुचित एवं अधर्म समझते थे। जैसे-जैसे मनुष्यों की प्रकृति में परिवर्तन आया और ब्रह्मचर्य पालन का स्पष्ट निर्देश न होने से इसकी अवहेलना की अधिक सम्भावनायें सामने आने लगीं तब भगवान् महावीर को इसके स्वतंत्र
१. मूलाचार ५।१४५-१४६. २. चाउज्जामो य जो धम्मो जो इमो पंचसिक्खिओ ।
देसिओ वद्धमाणेण पासेण य महामुणो । उत्तराध्ययन २३।२३. ३. दीघनिकाय-सामज्ञ फलसुत्त. ४. पुरिमा उज्जु जडा उ वंकजडा य पच्छिमा ।
मज्झिमा उज्जुपन्ना उ तेन धम्मे दुहा कर।।-उत्तराध्ययन २३॥ २५.
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