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६२ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन मन में उसकी सुरक्षा का भय बना रहता है । और निर्भय बने बिना श्रमण कभी सच्चा साधक नहीं बन सकता। अतः जो निर्ग्रन्थ श्रमण परिग्रह का संग्रह, चिन्तन और प्रयत्नपूर्वक रक्षण रूप आर्तध्यान करते हैं उसको तो आचार्यों ने पापमोहित बुद्धि वाला पशु कहा है, श्रमण नहीं। इस तरह श्रमण को ऋद्धि, सत्कार. पूजा को भावना तथा जीवन की अभिलाषा से भी रहित होना तथा परिग्रह को मूर्छा रूप जानते हुए लेशमात्र भी उसका संग्रह नहीं करना चाहिए । अपितु पक्षो की तरह सं रह से निरपेक्ष रहते हुए अनासक्त भाव से संयमोपकरण मात्र के साथ विचरण करना चाहिए। प्रवचनसार में तो यहाँ तक कहा है कि काय चेष्टापूर्वक अर्थात् (प्रमाद एवं अप्रमाद को अवस्था में) शरीर की हलन-चलन आदिरूप क्रियाओं द्वारा पर-प्राणों के घात से बन्ध होता भी है अथवा नहीं भी होता है किन्तु उपधि अर्थात् परिग्रह से तो निश्चित ही बन्ध होता है इसीलिए श्रमण अन्तरंग तथा बहिरंग-सभी प्रकार का परिग्रह . छोड़ देते हैं। क्योंकि उपधि के सद्भाव में उस श्रमण के मूर्छा, आरम्भ या असंयम न हो यह कैसे हो सकता है ? तथा जो परद्रव्य में रत हो वह आत्मा को कैसे साध सकता है ? आचारांग में कहा है जो परिग्रह की बुद्धि का त्याग करता है वही परिग्रह को त्याग सकता है।
मूलतः परिग्रह के अन्तरंग और बाह्य-ये दो भेद हैं। इनमें अन्तरंग परिग्रह के १४ भेद हैं-मिथ्यात्व, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, क्रोध, मान, माया और लोभ । बाह्य परिग्रह के १० भेद हैं-क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, द्विपद, चतुष्पद, यान, शयनासन, कुप्य (वस्त्र)
और भाण्ड (पात्र)-इस तरह परिग्रह के कुल चौबीस भेद है । इन सबका मन, वचन और काय पूर्वक त्याग से ही यह महाव्रत सिद्ध होता है। १. लिंग पाहुड ५.
२. दशवकालिक १०।१७. ३. तत्त्वार्थसूत्र ७।१७, दशवकालिक ६।२१. ४. उत्तराध्ययन ६।१६. ५. हवदि व ण हवदि बंधो मदम्हि जीवेऽध कायचेट्ठम्हि ।
बंधो धुवमुवधीदो इदि समणा छड्डिया सव्वं ।। प्रवचनसार २१९. ६. वही २२१. ७. जे ममाइयं-मति जहाति, से जहाति ममाइयं-आचारांग २।६।१५६. ८. मिच्छत्तवेदरागा तहेब हस्सादिया य छद्दोसा।
चत्तारि तह कसाया चोद्दस अब्भंतरा गंथा ।। खेत्तं वत्थु धणधण्णगदं दुपदचदुप्पदगदं च । जाणसयणासणाणि य कुप्पे भंडेसु दस होंति ॥
-मूलाचार ५।२१०-२११, भगवती आराधना १११८-१११९.
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