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६० : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन चर्य है। जो श्रमण अपनी इन्द्रियों और मन को वश में कर लेता है वह आत्मा में ही रमण करेगा अन्यत्र नहीं ।
इस महाव्रत की महत्ता और स्वरूप के विषय में कहा है-वृद्धा, बालिका और यौवना स्त्री को अथवा इन तीनों के प्रतिरूपों को देखकर उन्हें माता, पुत्री और बहन के समान मानना तथा स्त्री-कथा के अनुराग से निवृत्त होना, त्रैलोक्यपूज्य ब्रह्मचर्य महावत है । देव, मनुष्य, तिथंच जाति की सचेतन एवं चित्रादि रूप अचेतन-इन चार प्रकार की स्त्रियों का मन, वचन और काय से सेवन न करना और सदा प्रयत्न-मन रहना ब्रह्मचर्य महाव्रत है । दीघनिकाय के महालिसुत्त में भगवान् बुद्ध ने ब्रह्मचर्य का वास्तविक उद्देश्य चित्त विकर्षक तत्त्वों पर विजय पाकर पूर्ण एकाग्रता प्राप्त करना तथा "भव-संयोजनों" को क्षीण करके परममुक्ति-निर्वाण को साक्षात्कार करना बतलाया है । दशवैकालिक में ब्रह्मचर्यव्रतधारी को मनोज्ञ विषयों में राग-भाव का निषेध है। इस प्रकार स्त्रियों का रूप देखकर उनके प्रति आकांक्षा की निवृत्ति अर्थात् मैथुन-संज्ञा रहित परिणाम को ब्रह्मचर्य कहा है।
भगवती आराधना में ब्रह्मचर्य से विपरीत अब्रह्म के दश भेद इस प्रकार बताये हैं- (१) स्त्री संबंधी इन्द्रिय-विषयों की अभिलाषा । (२) वत्थिविमोक्खो-लिगेंन्द्रिय में विकार होना, (३) प्रणीतरससेवन-धातु, बल, वीर्य की वृद्धि हेतु पौष्टिक आहार ग्रहण, (४) संसक्तद्रव्यसेवा-शय्यादि का सेवन, (५) तदिन्द्रियालोचन-स्त्रियों के सुन्दर शरीर का अवलोकन (६) सत्कारस्त्रियों का सम्मान करना, (७) संस्कार-स्त्रियों के देह पर प्रेम रखकर वस्त्र, माला आदि पदार्थों से उन्हें आभूषित करना (८) अतीत-स्मरण, (९) अनागता भिलाषा तथा (१०) इष्टविषयसेवा । मन, वचन और काय से परशरीर संबंधी प्रवृत्ति का जिसने त्याग किया है, वह श्रमण दस प्रकार के अब्रह्म का त्याग करता
१. जीवो बंभा जीवम्मि चेव चरिया हविज्ज जा जदिणो ।
तं जाण बंभचरं विमुक्कपरदेहतत्तिस्स ॥ भगवती आराधना ८७८. २. मादुसुदाभगिणीवय दठूणित्थित्तियं च पडिरूवं ।
इत्थिकहादिणियत्ती तिलोयपुज्ज हवे बंभं ॥मूलाचार ११८. ३. वही-५।९५. ४. दीघनिकायपालि. (१. सीलक्खन्धवग्गो) आमुख पृ० ८. ५. दशवकालिक ८1५८. ६. नियमसार ५९. ७. भगवती आराधना ८७९-८८०.
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