________________
मूलगुण : ५९ दोष प्रकट करके किसी को पीड़ाकारी वचन कहना। जैसे अन्धे को अन्धा या काने को काना कहना आदि । सत्य महाव्रत के अन्तर्गत इन चारों का सर्वथा त्याग होता है।
भाषा के सत्य, असत्य, मिश्र और व्यावहारिक-ये चार भेद हैं। इनमें श्रमण के लिए असत्य एवं मिश्र भाषा का प्रयोग वर्जित है। सत्य और व्यावहारिक भाषा भी हिंसादि अभिप्राययुक्त होगी तो उसका भी निषेध किया है। अतः श्रमण को केवल अहिंसापूर्ण निर्दोष, सत्य तथा व्यावहारिक भाषा बोलने का विधान है।
३. अवत्तपरिवर्जन (अचौर्य) महावत-यह तीसरा महावत है । इसे अस्तेय या अचौर्य भी कहा जाता है। मूलाचारकार ने इसकी परिभाषा करते हुए कहा है-ग्राम, नगर, जंगल आदि स्थानों में पड़ी हुई, भूली या रखी हुई, अल्प या स्थूल अथवा पर-संग्रहीत वस्तुओं को बिना दिये ग्रहण न करना अदत्तपरिवर्जन महावत है।२ श्रमण को अपनी तपस्या, वाणी, रूप, आचार और भाव की भी चोरी का निषेध किया है । ३ वस्तुतः अदत्तादान में प्रवत्ति लोभवश ही होती है। अतः सचेतन अथवा अचेतन, अल्प या बहुत यहाँ तक कि दांत साफ करने की सींक भी विना दिये ग्रहण करने का निषेध किया गया है ।
४. ब्रह्मचर्य-ब्रह्म शब्द जीव (आत्मा) का बोधक है । 'बृह' धातु से ब्रह्म शब्द बना है, जिसका अर्थ होता है बढ़ना । ज्ञान, दर्शन आदि रूप से बढ़ने को ब्रह्म कहते हैं । जो बढ़ता है वह ब्रह्म जीव है, उस ब्रह्म में ही चर्या ब्रह्मचर्य है । पराये शरीर सम्बन्धी व्यापार (स्त्री रमणादि) से विरत श्रमण का अनन्त पर्यात्मक जीव-स्वरूप का ही अवलोकन करते हुए उसी में रमण करना ब्रह्म
१. पुरुषार्थ सिद्धयुपाय ९१. २. गामादिसु पडिदाई अप्पदि परेण संगहिदं ।
णादाणं परदव्वं अदत्त परिवज्जणं तं तु ॥ मूलाचार ११७, ५।९४.
और भी देखिए-आचारांग २।१५।१।१, दशवकालिक ४।१३. ३. दशवैकालिक ५।२।४६. ४. प्रश्न व्याकरण १।३. ५. दशवकालिक ६।१३.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org