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५४ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन घर्षण, नग्नता, स्थितभोजन और एकभक्त-इनका मूलगुणों के रूप में उल्लेख श्वेताम्बर परम्परा में न होते हुए भी इस परम्परा के श्रमण केशलोच, अस्नान, अदन्त-घर्षण आदि गुणों का पालन समान रूप से ही करते हैं। श्वेताम्बर परम्परा के कुछ गुण पुनरुक्त जैसे मालूम पड़ते हैं यथा-क्षमा और क्रोधत्याग । सामान्यतया दोनों समान हैं और सूक्ष्म दृष्टि से इन दोनों में अन्तर भी कह सकते हैं क्योंकि क्रोध न होने देना क्षमा तथा पैदा हुए क्रोध को रोकना क्रोध-त्याग है। योगसत्य, भावसत्य और करणसत्य, चारों कषायों और तीन योगों का समावेश पांच समितियों में हो जाता है। दर्शन-सम्पन्नता को सामायिक आवश्यक के अन्तर्गत मान सकते हैं । ज्ञान सम्पन्नता और चारित्र सम्पन्नता को विशिष्ट गुण मान सकते हैं । वेदना और मरणांत-कष्ट सहिष्णुता को मूलगुणों में न मानकर परिषहजय के अन्तर्गत माना है । मूलाचार में प्रतिपादित उपर्युक्त अट्ठाईस मूलगुणों का क्रमश : विवेचन प्रस्तुत हैव्रत
श्रम, तप और त्याग प्रधान श्रमण संस्कृति में आध्यात्मिक मूल्यों को गहरी प्रतिष्ठा है । आध्यात्मिक जीवन के उत्कर्ष को निरन्तर गतिशील बनाये रखने के लिए व्रत, नियम आदि के पालन और मर्यादा से अपने आचार को संवारना आवश्यक है । व्रत, ग्रहण के पहले व्यक्ति को तदनुकूल भूमिका बनाकर उनके पालन की सामर्थ्य प्राप्त करना परम आवश्यक है। क्योंकि व्रत बीज की तरह हैं । व्रत रूपी बीजों को फलित करने के लिए अपने हृदय रूपी भूमि को उर्वरा बनाना आवश्यक है, अन्यथा व्रत फलीभूत नहीं होंगे।
व्रत से तात्पर्य है हिंसा, अनृत (झूठ) स्तेय (चोरी), अब्रह्म (मैथुन या कुशील) तथा परिग्रह-इनसे विरति (निवृति) होना।' विरति अर्थात् जानकर और प्राप्त करके इन कार्यों को न करना ।२ प्रतिज्ञा करके जो नियम लिया जाता है वह भी व्रत है । अथवा यह करने योग्य हैं और यह नहीं करने योग्य है-इस प्रकार नियम करना भी व्रत है। इस प्रकार हिंसा आदि पाँच पापों के दोषों को जानकर आत्मोत्कर्ष के उद्देश्य से इनके त्याग या इनसे विरति को प्रतिज्ञा लेकर पुनः कभी उनका सेवन न करने को व्रत कहते हैं। अकरण, निवृत्ति, उपरम और विरति-ये सभी एक ही अर्थ के वाचक हैं। १. हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम्-तत्त्वार्थसूत्र ७-१. २. विरतिर्नाम ज्ञात्वाभ्युपेत्याकरणम्-तत्त्वार्थाधिगम भाष्य ७-१. ३. व्रतमभिसन्धिकृतो नियमः, इदं कर्तव्यमिदं न कर्त्तव्यमिति
-सर्वार्थसिद्धि ७-१-६६४.
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