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________________ ५० : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन अनेक गुणों से युक्त हो, कुल, रूप एवं अवस्था में विशिष्ट हो तथा अन्य सभी श्रमण जिसे अत्यन्त चाहते हों-इन विशेषताओं से युक्त गणी को प्रणत होता हुआ वह कहे-प्रभो ! मुझे अंगीकार कीजिए। यह कहकर वह उन गणी के द्वारा अनुग्रहीत हो अपनी भावना इस प्रकार प्रकट करे कि मैं दूसरों का नहीं हूँ, दूसरे मेरे नहीं है। इस लोक में भी मेरा कुछ नहीं है-ऐसा निश्चयवान् और जितेन्द्रिय होता हुआ वह यथाजात (नग्न) वेष धारण करता है।' ऐसा भव्य जीव सभी प्रकार के परिग्रहों से मुक्त अपरिग्रही बनकर स्नेह से रहित, शरीर संस्कार का सर्वथा के लिए त्यागकर आचार्य द्वारा यथाजात (नग्न) रूप धारण कर जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्ररूपित धर्म को अपने साथ लेकर चलता है ।२ अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग-श्रमण को ये दोनों ही चिह्न (लिङ्ग) धारण करना अनिवार्य है। अर्थात् जन्म के समय (यथाजात अथवा सद्योजात बालक) जैसा रूपवाला, शिर और दाढ़ी-मूंछ के केशों का लोच किया हुआ, शुद्ध अर्थात् अकिंचन और निर्विकार होता हुआ, हिंसादि पापों तथा प्रतिकर्म अर्थात् शारीरिक श्रृंगार रहित ऐसा बाह्य लिङ्ग और मूर्छा (आसक्ति) और आरम्भ रहित, उपयोग एवं योग की शुद्धि से युक्त, परापेक्षा रहित यह जिनेन्द्र द्वारा प्रतिपादित श्रामण्य का अन्तरङ्ग लिङ्ग है जो कि अपुनर्भव (मोक्ष) का कारण है। ऐसा श्रामण्यार्थी परमगुरु के द्वारा प्रदत्त उपर्युक्त दोनों प्रकार के लिङ्ग धारणकर, गुरु को नमन करता है । व्रत सहित आचार पद्धति सुनता है और १. आपिच्छ बंधवग्गं विमोचिदो गरुकलत्तपत्तेहि । आसिज्ज णाणदंसणचरित्त तववीरियायारं ॥ समणं गणि गुणड्ढं कुलरूववयोविसिट्टमिट्टदरं । समणेहि तं पि पणदो पडिच्छ में चेदि अणुगहिदो ॥ णाहं होमि परेसिं ण मे परे णत्थि मज्झमिह किंचि । इदि णिच्छिदो जिदिदो जादो जधजादरूवधरो । -प्रवचनसार गाथा २०२,२०३,२०४. २. ते सव्वगंथमुक्का अममा अपरिग्गहा जहाजादा । वोसट्टचत्तदेहा जिणवरधम्म समं गति ।। मूलाचार ९।१५. ३. जधजादरूवजादं उप्पाडिदकेसमंसुगं सुद्ध। रहिदं हिंसादीदो अप्पडिकम्मं हवदि लिंग ॥ मुच्छारंभविजुत्तं जुत्तं उवओगजोगसुद्धीहिं । लिंगं ण परावेक्खं अपुणब्भवकारणं जेण्हं ॥ प्रवचनसार गाथा २०५, २०६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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