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६२ : जैन आर बौद्ध भिक्षुणो-संघ
यात्रा-पथ : यात्रा के पथ के सम्बन्ध में उन्हें यह निर्देश दिया गया था कि वे यथासम्भव आर्यों अर्थात् सुसभ्य प्रदेशों से होकर ही यात्रा करें।' नृपहीन राज्यों के मध्य से भिक्षुणियों को यात्रा करने का निषेध किया गया था क्योंकि ऐसे प्रदेश में अराजकता अथवा अव्यवस्था का होना सम्भव है और भिक्षुणी विपरीत परिस्थितियों में उलझ सकती है। मार्ग में यदि लम्बा जंगल पड़ने की सम्भावना हो तो उन्हें यह निर्देश दिया गया था कि यथासम्भव वे उस रास्ते से न जायें । इसी प्रकार यदि रास्ते में टीला, खाई, दुर्ग आदि पड़ता हो और मार्ग सीधा हो तब भी उन्हें उस रास्ते से जाने का निषेध किया गया था; उन्हें घुमावदार एवं अच्छे मार्ग से ही जाने का विधान था। उन्हें उस रास्ते से भी जाने का निषेध किया गया था, जिस पर घोड़ा-गाड़ियाँ, रथ अथवा सेना जा रही हो ।
उपर्युक्त नियमों को निर्माण प्रक्रिया से यह स्पष्ट ध्वनित होता है कि जैनाचार्यों ने भिक्षुणियों की जीवन-सुरक्षा और शील-सुरक्षा की व्यापक व्यवस्था की थी। भिक्षुणियों को इस प्रकार के निर्देश दिये गये थे ताकि उन्हें किसी प्रतिकूल परिस्थिति का सामना न करना पड़े।
यात्रा के समय व्यर्थ का वार्तालाप करना निषिद्ध था । यदि कोई पथिक ग्राम या नगर के बारे में पूछे भी तो उन्हें यह निर्देश दिया गया था कि वे इसका उत्तर न दें, अपितु मौन धारण किये रहें। रास्ते पर यदि ऊँचा घर, किला आदि पड़े तो संशयवश उसे उचक-उचक कर देखने से निषेध किया गया था।
भिक्षुणियों को यद्यपि वैराज्य, अराजक तथा नृपहीन राज्यों के मध्य से यात्रा करने का निषेध किया गया था, परन्तु कुछ विशेष परिस्थितियों में बहत्कल्पभाष्यकार ने इनमें यात्रा करने की छूट दी है। उदाहरणस्वरूप१. आचारांग, २।३।१६. २. वही, २।३।११७. ३. वही, २।३।१८. ४. वही, २।३।२।१४. ५. वही, २।३।२।१५-१६. ६. वहो, २३।२।८. ७. वही, २।३।३।७-११. ८. वही, २।३।३।१-२.
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