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प्राक्कथन
प्राचीनकाल से ही भारतवर्ष में दो मुख्य धाराएँ रही हैं-प्रवृत्तिमार्गी धारा तथा निवृत्तिमार्गी धारा । यह निवृत्तिमार्गी धारा ही श्रमणपरम्परा के रूप में विकसित हुई । गृह-त्याग कर संन्यास धर्म का पालन करना श्रमण-परम्परा की मुख्य विशेषता रही है। जैन एवं बौद्ध धर्म श्रमण-परम्परा के मुख्य निर्वाहक रहे हैं। इन दोनों धर्मों में व्यवस्था के लिए संघ को चार भागों में विभाजित किया गया था-(१) भिक्षु-संघ, (२) भिक्षुणी-संघ, (३) श्रावक-संघ (उपासक-संघ), (४) श्राविका-संघ (उपासिका-संघ) । इनमें भिक्षु एवं भिक्षुणी-संघ विशेष महत्त्वपूर्ण थे, क्योंकि ये श्रमण-परम्परा के आधार स्तम्भ थे। दोनों धर्मों में अधिकांश नियमों एवं उपनियमों का निर्माण भिक्षु-भिक्षुणियों के लिए किया गया था। प्रस्तुत प्रबन्ध में भिक्षुणियों से सम्बन्धित आचार-व्यवहार के नियमों का विवेचन किया गया हैं।
यद्यपि जैन एवं बौद्ध धर्मों में आचार सम्बन्धी अनेक ग्रन्थों की रचना की गयी, परन्तु बौद्ध धर्म के थेरवादी निकाय के भिक्खुनी-पातिमोक्ख तथा महासांघिक निकाय के भिक्षुणी-विनय के अतिरिक्त कोई भी स्वतन्त्र ग्रन्थ भिक्षुणियों की संघ एवं आचार-व्यवस्था पर नहीं लिखा गया । अन्य बौद्ध ग्रन्थ यथा-महावग्ग, चुल्लवग्ग तथा निकाय साहित्य में यत्र-तत्र ही भिक्षणियों के आचार-नियमों के उल्लेख प्राप्त होते हैं। जैन साहित्य में भी भिक्षणियों से सम्बन्धित कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं है। आचारांग, स्थानांग, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, दशाश्रुतस्कन्ध, बहत्कल्प सूत्र, व्यवहार सूत्र, निशीथ सूत्र तथा इनके व्याख्या एवं टीका ग्रन्थों में जैन भिक्षुणियों के आचार से सम्बन्धित नियम बिखरे हुये प्राप्त होते हैं।
श्रमण-परम्परा से सम्बन्धित आधुनिक काल में भी अनेक पुस्तकें प्रकाश में आयी हैं परन्तु इन ग्रन्थों में भी भिक्षुणियों अथवा उनके संघ का वर्णन अत्यन्त सीमित मात्रा में किया गया है। इस सम्बन्ध में कुछ पुस्तकें द्रष्टव्य हैं-"कान्ट्रीब्यूशन टू द हिस्ट्री ऑफ ब्राह्मनिकल एस्केटिसिज्म" (हरदत्त शर्मा), एस्केटिसिज्म इन एन्सेन्ट इण्डिया (हरिपद
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