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प्रकाशकीय
जैन और बौद्ध भिक्षुणी-संघ नामक प्रस्तुत ग्रन्थ पाठकों के करकमलों में प्रस्तुत करते हुए हमें अतीव प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है। प्रस्तुत कृति डॉ० अरुण प्रताप सिंह के उपर्युक्त विषय पर लिखे गये शोध-प्रबन्ध का संशोधित एवं परिवर्धित रूप है। डॉ. अरुण प्रताप सिंह पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान के न्यूकेम शोध छात्र रहे हैं और उन्हें काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी द्वारा सन् १९८२-८३ में पी-एच० डी० की उपाधि प्रदान की गई। डॉ० अरुण प्रताप सिंह वर्तमान में भी संस्थान के सह शोध-अधिकारी के रूप में कार्यरत हैं। उनके अध्ययन के इस प्रतिफल को आज प्रकाशित करते हुए हमें परम प्रमोद का अनुभव हो रहा है। ___ भारतीय आध्यात्मिक साधना में तथा भारतीय धर्मों, विशेषकर श्रमण परम्परा के धर्मों के विकास में नारी जाति का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। जैन एवं बौद्ध धर्म के भिक्षुणी-संघों ने इन धर्मों के उन्नयन तथा विकास में जो भूमिका प्रस्तुत की है, वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, किन्तु हमारा दुर्भाग्य यह रहा कि पुरुष प्रधान संस्कृति के कारण हमेशा नारी जाति के योगदानों का सम्यक् मूल्यांकन नहीं किया जाता रहा । इसीलिए आज जहाँ भिक्षु-संघ का किसी सीमा तक विस्तृत एवं व्यवस्थित इतिहास मिलता है, वहीं भिक्षुणी-संघ का इतिहास आज भी अंधकार से आवृत्त है। मात्र यही नहीं, अपितु उनके आचार एवं व्यवहार के जो नियम प्रस्तुत किये गये हैं, उन पर भी समीक्षात्मक एवं तुलनात्मक दृष्टि से गम्भीर चिन्तन नहीं किया गया है। डॉ. अरुण प्रताप सिंह की इस प्रस्तुत कृति में जैन एवं बौद्ध भिक्षुणी-संघों के आचार-नियमों का तुलनात्मक विवरण प्रस्तुत है। पाठकों को यह जानकर भी प्रसन्नता होगी कि वे दोनों भिक्षुणी-संघों के ऐतिहासिक विवरणों को भी संकलित कर रहे हैं और शीघ्र ही इसी क्रम में उनकी एक अन्य प्रति प्रकाशित होगी।
जैन परम्परा का समग्र इतिहास इस बात को बहत स्पष्ट रूप से सूचित करता है कि जैन संघ में भिक्षुओं की अपेक्षा भिक्षणियों की संख्या सदैव अधिक रही है। आज भी जैन परम्परा में मुनियों की अपेक्षा
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