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३६ : जैन और बौद्ध भिक्षुणी-संघ चूर्ण आदि वशीकरण मन्त्रों का प्रयोग करके आहार लना, (१५) योगसिद्धि आदि योग-विद्या का प्रयोग करके आहार लेना, (१६) मूलकर्मगर्भस्तम्भन आदि विद्या का प्रयोग करके आहार लेना,
एषणा के १० दोष'-(१) शंकित-आधाकर्मादि दोषों की शंका होने पर भी आहार लेना, (२) मुद्रित-सचित्तयुक्त आहार लेना, (३) निक्षिप्त-सचित्त वस्तु पर रक्खा हुआ आहार लेना, (४) पिहितसचित्त वस्तु से ढंका हुआ आहार लेना, (५) संहृत-पात्र में पहले से रखेहए अनुपयुक्त पदार्थ को निकाल कर उसी पात्र से लेना, (६) दायकगर्भिणी आदि से आहार लेना, (७) उन्मिश्र-सचित्त से मिश्रित आहार लेना, (८) अपरिणत-अधपका आहार लेना, (९) लिप्त-दही, घृत आदि से लिप्त पात्र या हाथ से आहार लेना, (१०) छदित-ऐसा आहार जिस पर पानी के छींटे आदि पड़े हों अथवा देते समय बाहर गिरता हुआ आहार लेना।
परिभोग के ५ दोष-(१) संयोजन-भोजन को सुस्वादु बनाने के लिए दूध, शक्कर आदि पदार्थ मिलाना, (२) अप्रमाण-प्रमाण से अधिक भोजन करना, (३) अंगार-सुस्वादु भोजन को प्रशंसा करते हुये खाना, (४) धूम-स्वादरहित आहार को निन्दा करते हुये ग्रहण करना, (५) अकारण-आहार करने के छः कारणों के अतिरिक्त बल-वृद्धि के लिए आहार करना।
भिक्षुणी को आहार सम्बन्धी उपर्युक्त दोषों से रहित आहार ह ग्रहण करने और उपभोग करने का निर्देश दिया गया था। आहार से सम्बन्धित उपर्युक्त नियमों का यदि हम सुक्ष्मता से अवलोकन करें तो इन सारे नियमों के मूल में जैनधर्म का अहिंसापरक दृष्टिकोण दिखायी पड़ता है। किसी भी परिस्थिति में सूक्ष्मजीव की हत्या न हो इसका कठोरता से पालन किया जाता था। इसके साथ ही यह भी ध्यान रखा जाता था कि गृहस्थ के ऊपर भोजन का अतिरिक्त भार न पड़े। गृहस्थ के द्वारा दिये गये भोजन की वह निन्दा नहीं कर सकती थी-अपितु भोजन चाहे स्वादिष्ट हो या स्वाद-रहित, उसे समभाव से खाने का निर्देश दिया गया था। भोजन को व्यर्थ में फेंकने की अनुमति नहीं थी।' १. पिण्डनियुक्ति, ५२०. २. वही, ६३५-६६८. ३. दशवकालिक, ५/२/१.
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