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________________ जैन एवं बौद्ध धर्म में भिक्षुणी-संघ की स्थापना : १३ ४. सुविणा (स्वप्न से)-पूष्पचूला के समान । ५. पडिस्सया (प्रतिज्ञा लेने से)-धन्य के समान । ६. सारणिया (स्मरण से)-तीर्थकर मल्ली के समान । ७. रोगिणिया (रोग होने से)-सनत्कुमार के समान । ८. अणाढिया (अनादर से)-नन्दिषेण के समान । ९. देवसण्णत्तो (देवता के उपदेश से)-मेतार्य के समान । १०. वोच्छाणुबंधिया (पुत्र-स्नेह से)-वैरस्वामी की माता के समान । उपर्युक्त १० कारणों के अतिरिक्त अन्य कारणों से भी लोग प्रव्रज्या ग्रहण कर लेते थे। यथा-कुछ लोग बिना मेहनत किए उत्तम भोजनादि की प्राप्ति (इहलोगपडिबद्धा ) तथा स्वर्ग लोक में सुख की इच्छा से प्रव्रज्या ग्रहण करते थे। कुछ लोग सद्गुरुओं की सेवा के लिए (उवायपवज्जा) प्रव्रज्या ग्रहण करते थे, तो कुछ लोग ऋण से मुक्ति पाने के लिए भी (मोयावइत्ता) प्रव्रज्या ले लेते थे। कुछ लोग एक दूसरे को देखा-देखी अर्थात् एक के दीक्षा ले लेने पर दूसरा भी दीक्षा ले लेता था (संगारपव्वज्जा)। इन सामान्य कारणों के अतिरिक्त भी कछ ऐसे कारण थे, जिनके फलस्वरूप स्त्रियाँ प्रव्रज्या ग्रहण कर लेती थीं। सामान्यतया पति की मृत्यु अथवा उसके प्रव्रज्या ग्रहण कर लेने पर पत्नियाँ भी प्रव्रजित हो जाती थीं। उत्तराध्ययन सूत्र में राजीमती२ और वाशिष्ठी के उदाहरण द्रष्टव्य हैं। राजीमती ने यह समाचार पाकर कि उसके भावी पति भिक्षु हो गये है, भिक्षणी बनने का निश्चय कर लिया। वाशिष्ठी ने भी अपने पति और पुत्रों को प्रव्रज्या ग्रहण करते हुए देखकर संसार का त्याग किया था। कुछ नारियां पति की मृत्यु या पति की हत्या कर दिये जाने के पश्चात् प्रव्रज्या ग्रहण करती थीं क्योंकि उस सामाजिक परिवेश में उन्हें उतनी सुरक्षा नहीं प्राप्त हो पाती थी, जितनी अपेक्षित थी। यही कारण था कि गर्भावस्था में भी वे संघ-प्रवेश हेतु प्रार्थना करती थीं। मदनरेखा के पति को उसके सहोदर भ्राता ने मार डाला । उस समय वह गर्भवती थी परन्तु भयभीत होकर जंगल में भाग गई और मिथिला १. स्थानांग, ३३१५७. २. उत्तराध्ययन, २२ वा अध्याय । ३. वही, १४ वा अध्याय । ४, उत्तराध्ययन नियुक्ति, पृ० १३६-४०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002086
Book TitleJain aur Bauddh Bhikshuni Sangh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArun Pratap Sinh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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