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२१६ : जैन और बौद्ध भिक्षुणी-संघ साथ ही विकसित दो धर्मों में से एक का सर्वथा नष्ट (लोप) हो जाना कुछ आश्चर्य में डाल देता है। फलतः उन कारणों पर विचार करना आवश्यक है, जिनसे बौद्ध भिक्षुणी-संघ का पतन हुआ। लेकिन ठीक उन्हीं परिस्थितियों में जैन भिक्षणी-संघ अपने अस्तित्व को बचाये रख सका। इन कारणों का विश्लेषण करना इसलिए भी आवश्यक है कि जिस बौद्ध भिक्षणी-संघ में नारियाँ इतनी बड़ी संख्या में श्रद्धा एवं विश्वास के साथ प्रविष्ट हुयीं, वह अपने उद्भव के सहस्र वर्ष के अन्दर ही क्यों समाप्त हो गया ?
बौद्ध भिक्षुणी-संघ की स्थापना सन्देहपूर्ण वातावरण में हुई थी। इसके संस्थापक बुद्ध ने स्वयं संघ में नारियों के प्रवेश के कारण पूरे धर्म के भविष्य के प्रति निराशाजनक भविष्यवाणी की थी।' बौद्ध भिक्षुणी-संघ की स्थापना में सहयोग देने के कारण स्थविर आनन्द को प्रथम बौद्ध संगीति में दुक्कट का दण्ड दिया गया था।२ इसका स्पष्ट अर्थ था कि बौद्धाचार्य भिक्षुणी-संघ की स्थापना के प्रति अनिच्छुक थे। परवर्ती काल के बौद्धाचार्यों ने भिक्षुणियों के प्रति और अधिक कठोर रुख अपनाया और उनके हर कृत्य को संदेह की दृष्टि से देखा। ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति जो निरन्तर विकसित हो रही थी, किसी भी धर्म या संघ के विकास के लिए उपयुक्त नहीं मानी जा सकती। इसके विपरोत जैन भिक्षुणी-संघ की स्थापना या भिक्षुणियों की स्थिति के सम्बन्ध में कोई सन्देह व्यक्त नहीं किया गया । बुद्ध के ही समकालीन महावीर ने जैन भिक्षुणियों के प्रति कोई संशय नहीं व्यक्त किया था । जैन भिक्षुणियों को निरन्तर जैनाचार्यों द्वारा प्रोत्साहन मिलता रहा।
जैन भिक्षु-भिक्षुणियों का अपने धर्म के श्रावक-श्राविकाओं से अटूट सम्बन्ध था। भोजन, वस्त्र आदि की गवेषणा के लिए उन्हें प्रतिदिन श्रावकों १. “सचे, आनन्द नालभिस्स मातुगामो तथागतप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा
अनगारियं पब्बज्जू, चिरट्ठितिकं, आनन्द, ब्रह्मचरियं अभविस्स, वस्ससहस्सं सद्धम्मो तिट्टेय्य । यतो च खो, आनन्द, मातुगामो तथागतप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो, न दानि, आनन्द, ब्रह्मचरियं चिरदितिक भविस्सति । पञ्चेव दानि, आनन्द, वस्ससतानि सद्धम्मो ठस्सति ।"
-चुल्लवग्ग, पृ० ३७६-७७; भिक्षुणी विनय [१२ । २. वही, पृ० ४११ । 3. Women under Primitive Buddhism, P. 105.
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