________________
२०४ : जैन और बौद्ध भिक्षुणी-संघ . ५. आर्या धामथा कोट्टिय गण, स्थानीय कुल, वज्री शाखा की थी। ६. आर्या सादिता वारण गण, नादिक कुल की थी।
७. आर्या श्यामा कोट्टिय गण, ब्रह्मदासिक कुल उच्छै गरी शाखा, श्रीक सम्भोग की थी। - इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रथम शताब्दी ईस्वी में ही जैन-भिक्षु. णियाँ विभिन्न गणों में विभाजित हो गई थीं। गण भी कई कुलों तथा शाखाओं में बँट गये थे।
साहित्यिक एवं आभिलेखिक साक्ष्यों से जैन धर्म के भिक्षु तथा भिक्षुणी-संघ के सम्बन्ध में ऐसे अनेक उल्लेख प्राप्त होते हैं, जिनसे यह स्पष्टतया सूचना मिलती है कि जैन संघ १२०० ईस्वी तथा उसके पश्चात् भी फलता-फूलता रहा । दक्षिण भारत के अभिलेखों में भिक्षुणियों के समाधि-मरण तथा दान के अनेक उल्लेख प्राप्त होते हैं । जैसे :
१-अजिगण की साध्वी राजीमती शक संवत् ६२२ (७०० ई०) में समाधिमरण को प्राप्त हुई।
२-शिष्या नाणब्बेकन्ति शक संवत् ८९३ में समाधिमरण को प्राप्त
३-साध्वी कालब्बे शक संवत् ११२६ (१२१४ ई०) में समाधिमरण को प्राप्त हुई।६
उत्तर भारत में भी जैन भिक्षुणी-संघ की निरन्तरता की सूचना मिलती है।
१-खरतगच्छ के प्रसिद्ध आचार्य जिनेश्वर सूरि का समय विक्रम संवत् १०८० (१०२३ ई०) माना जाता है। इनके गच्छ में मरुदेवी नामक आर्या गणिनी का उल्लेख मिलता है "मरुदेवी नाम अज्जा गणिणी"।"
२-जिनदत्त सूरि, जिन्होंने विक्रम संवत् ११४१ में दीक्षा ग्रहण की. थी, के गच्छ में १००० साध्वियों का उल्लेख मिलता है। 1. List of Brahmi Inscriptions, 75. 2. Ibid. 117. 3. Ibid, 121. ४. जैन शिलालेख संग्रह, भाग प्रथम, पृ० ३१७. ५. वही, भाग द्वितीय, पृ० १९७. ६. वही, भाग प्रथम, पृ० ३७९. ७. खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड, पृ० १२.. ८. खरतरगच्छ पट्टावली, पृ० १०.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org