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१९४ : जैन और बौद्ध भिक्षुणी-संघ
भिक्षुणियाँ भिक्षुओं से अपनी आवश्यकता की वस्तुओं की याचना भी कर सकती थीं । चल्लवग्ग में भिक्षणियों द्वारा भिक्षओं के पास शय्यासन के लिए सन्देश भेजने का उल्लेख है, क्योंकि भिक्षु-संघ के पास शय्यासन संख्या में अधिक था। भोजन की मात्रा अधिक होने पर भी वे एक दूसरे को दे सकते थे। इसी प्रकार की हुई प्रतिज्ञा आदि की पूर्ति हेतु भी भिक्ष किसी भिक्षुणी को भोजन आदि दे सकता था। चल्लवग्ग में उल्लेख मिलता है कि एक पिंडचारिक (कोई निमन्त्रण न स्वीकार कर सदा भिक्षा माँगकर भोजन करने वाला) भिक्षु ने प्रतिज्ञा की थी कि वह प्रथम प्राप्त भिक्षा को किसी भिक्ष या भिक्षणी को दिये बिना नहीं ग्रहण करेगा और उसने वह भिक्षा एक भिक्षुणी को प्रदान की थी। भोजन की तरह वस्त्र भी भिक्षु-भिक्षुणी परस्पर एक दूसरे को प्रदान कर सकते थे।
परन्तु कोई भिक्षु किसी भिक्षुणी से अपने वस्त्रों को न तो धुलवा सकता था और न रंगवा हो सकता था । किसी भिक्षुणी के वस्त्र को सीने अथवा उसमें सहयोग देने पर भिक्षु पाचित्तिय दण्ड का दोषो समझा जाता था।" यहाँ भिक्षुणी से तात्पर्य अज्ञातिका भिक्षुणी से है । राहुल सांकृत्यायन के अनुसार ऐसी भिक्षुणी जिसका भिक्ष से उसके पिता या माता की ओर से सात पोढ़ी के भीतर तक कोई सम्बन्ध न हो, अज्ञातिका भिक्षुणी कहलाती है। __इस प्रकार भिक्षु-भिक्षुणियों के पारस्परिक व्यवहार सम्बन्धी कुछ मर्यादाएँ थीं, जिनका उन्हें पालन करना पड़ता था। कभी-कभी कुछ भिक्षु-भिक्षुणियों के पारस्परिक सम्बन्ध अत्यन्त घनिष्ठ हो जाते थे। हमें साहित्यिक तथा आ भलेखिक-दोनों साक्ष्यों से भिक्षु-भिक्षुणियों के मध्य घनिष्ठ सम्बन्धों का उल्लेख मिलता है। इसका एक प्रमुख कारण यह था कि कभी-कभी एक ही परिवार के सदस्य (पति, पत्नी, भाई, बहन आदि) एक साथ प्रव्रज्या ग्रहण करते थे, इसलिए पूर्व गृहस्थ-जीवन के सम्बन्धों के कारण उनमें एक दूसरे के प्रति घनिष्ठता बनी रहती थी। धम्मपद १. चुल्लवग्ग, पृ० ३९०. २. वही, पृ० ३९० ३. वही, पृ० ३८८-८९. ४. पातिमोक्ख, भिक्खु निम्स ग्गिय पाचित्तिय, ४,५,१७. ५. वही, भिक्खु पाचित्तिय, २६. ६. सांकृत्यायन, राहुल “विनय पिटक' हिन्दी अनुवाद, पृ० १७.
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