________________
भिक्षु-भिक्षुणी सम्बन्ध एवं संघ में भिक्षुणी की स्थिति : १९३ प्रोत्साहित किया जाता था तथा निश्रय के समय भी इसकी शिक्षा दी जाती थी। भिक्षुणियों के शील की सुरक्षा के उपयुक्त नियम उचित जान पडते हैं, क्योंकि वे अपने शील की रक्षा भिक्षु-संघ के साथ रहकर आसानी से कर सकती थीं। सम्पर्क के अवसर ___ भिक्षु-भिक्षुणियों के मध्य अति-परिचय बढ़ने से अनेक दोषों के उत्पन्न होने की सम्भावना थी, अतः बौद्ध संघ में भी इसके निराकरण का प्रयत्न किया गया था। संघ में एक साथ रहते हुए यह कदापि सम्भव न था कि भिक्षु-भिक्षुणी परस्पर मिल ही न सकें। संघ के समक्ष भिक्षुणियों की शील-रक्षा का प्रश्न भी था, जिसके कारण संघ उन्हें सर्वथा अकेले रहने की अनुमति नहीं दे सकता था। अतः भिक्षुणियों के मध्य पारस्परिक सम्बन्ध का होना अनिवार्य था । परन्तु यह ध्यान दिया गया था कि भिक्षु-भिक्षणी के सम्बन्ध इतने अधिक घनिष्ठ न हो जायें कि नियमों को अवहेलना होने लगे। संघ की मर्यादा के अन्दर ही उन्हें एक दूसरे से मिलने की अनुमति दी गई थी।
यदि किसी भिक्षणी, शिक्षमाणा या श्रामणेरी का कोई कार्य हो और वह भिक्षु की सहायता चाहती हो, तो भिक्षु सन्देश मिलने पर सात दिन के लिए वर्षाकाल में भी जा सकता था। इसी तरह भिक्षुणी यदि रोगग्रस्त हो, उसका मन संन्यास से हट गया हो (अनभिरति), धर्म में सन्देह पैदा हो गया हो (कक्कुच्चं), मन में बुरी धारणा उत्पन्न हो गयी हो (दिट्रिगतं), मानत्त का दण्ड लगा हो और वह भिक्ष के पास सहायता के लिए सन्देश भेजे तो भिक्ष को वहाँ जाने की अनुमति थी। इसी प्रकार एक या बहत सी भिक्षणियाँ संघ में भेद पैदा करने की कोशिश कर रही हों, तो संघ-भेद रोकने के लिए तथा भिक्षुणियों को वस्तुस्थिति समझाने के लिए भिक्षु भिक्षणी से व्यक्तिगत रूप से मिलकर अथवा भिक्षणी-संघ के आवास में जाकर अपने प्रभाव का उपयोग कर सकता था। उसके प्रभाव से यह सम्भव था कि संघ-भेद का प्रयत्न करने वाली भिक्षुणी या भिक्षुणी-समुदाय अपने गर्हित कार्य से विमुख हो जाय ।
१. महावग्ग, पृ० १४६. २. वही, पृ० १४९, १५१-५२. ३. वही, पृ० १५८.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org