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१६४ : जैन और बौद्ध भिक्षुणी-संघ ९१वाँ', १०२वाँ, १२६वाँ तथा १४१वाँ पाचत्तिक नियम थेरवाद निकाय के न तो भिक्खुनी पाचित्तिय में प्राप्त होते हैं और न ही भिक्खु पाचित्तिय में । निस्सग्गिय पाचित्तिय
यह दण्ड मुख्य रूप से चीवर तथा पात्र के सम्बन्ध में दिया जाता था तथा इस प्रकार के अपराध करने वाले व्यक्ति को अपने वस्त्रों तथा पात्रों को कुछ समय के लिए त्यागना पड़ता था । संघ, गण या पुग्गल (व्यक्ति) के समक्ष अपने दोषों को स्वीकार कर लेने पर इस दोष का निराकरण हो जाता था। __भिक्षुणियों के निस्सग्गिय पाचित्तिय अपराध निम्न हैंभि० नि० भि० नि० पाचि० पाच० (महा(थेरवादी) सांघिक)
विषय जो भिक्षुणी अधिक पात्रों का संचय करे । जो भिक्षुणी अकालचीवर को कालचीवर मानकर ग्रहण करे।
जो भिक्षुणी अन्य भिक्षुणी से चीवर बदले । ४ १३ जो भिक्षुणी एक वस्तु कहकर दूसरी वस्तु
मँगाये । (अझं विज्ञापेत्वा अझं विज्ञा
पेय्य) १. सा एषा भिक्षुणी भिक्षु सम्मुखम् आक्रोशति पाचत्तिक ।
-भिक्षुणी विनय, $२०५. २. देशित शिक्षा पि च भवति गृहिचरितानाम् अपरिपूरिशिक्षाम् उपस्थापयेत
पाचत्तिक । --वही, ६२१६. ३. या पुन भिक्षुणी गृहीणानाम् उद्वर्तन-परिमर्दन स्नान-सम्मतेहि उद्वर्तापयेत
परिमर्दापयेत पाचत्तिक । ---वही, ६२४०. ४. या पुन भिक्षणी जानन्ती गणलाभं गणस्य परिणतं गणस्य परिणामयेत
पाचत्तिकं । --वही, $२५९. ५. "निस्सज्जितब्बं संघस्स वा गणरस वा पुग्गलस्स वा एक भिवखुनिया वा"
-पाचित्तिय पालि, पृ० ३३१. "संघमझे गणमझे एकस्सेव च एकतो निस्स ज्जित्वान देसेति-तेनेतं इति वुच्चति" -परिवार पालि, पृ० २६३.
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