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संगठनात्मक व्यवस्था एवं दण्ड-प्रक्रिया : १५१ प्रायश्चित्त समुचित रूप से कर सके ।' मानत्त के लिए भिक्षुणी को दोनों संघों के समक्ष उपस्थित होने का विधान था।
मानत्त-प्रायश्चित्त कर रहे भिक्षु के सन्दर्भ में विस्तृत नियमों का उल्लेख प्राप्त होता है । संघादिसेस अपराध करने पर भिक्षु यदि संघ को तुरन्त सूचित करता था तो उसे ६ रात का मानत्त-दण्ड दिया जाता था, परन्तु अपराध छिपाने पर उसके लिए परिवास के दण्ड का विधान था। जितने दिन तक वह अपराध को छिपाता था, उतने दिन तक उसे परिवासदण्ड देने का विधान था। परिवास के पश्चात् उसे पुनः ६ रात का मानत्तप्रायश्चित्त करना पड़ता था। ऐसे अपराधी भिक्षु को संघ से बाहर रहने का विधान था तथा प्रायश्चित्त काल तक उसे अन्य अधिकारों से वंचित कर दिया जाता था।
परिवास-दण्ड का प्रायश्चित्त कर रहे भिक्षु (पारिवासिक भिक्षु) को कुछ निषेधों का पालन करना पड़ता था--यथा वह उपसम्पदा तथा निश्रय नहीं प्रदान कर सकता था, भिक्षुणियों को उपदेश नहीं दे सकता था, संघ के अन्य भिक्षुओं के साथ नहीं रह सकता था, उपोसथ तथा प्रवारणा को स्थगित नहीं कर सकता था और न तो किसी के ऊपर दोष लगा सकता था और न किसी दण्ड का निर्णय कर सकता था--आदि ।'
सम्भवतः उपर्युक्त निषेधों का पालन मानत्तचारिणी भिक्षुणी भी करती रही होगी । भिक्षुणी को परिवास का दण्ड नहीं दिया जाता था। उसे १५ दिन का मानत्त प्रायश्चित्त ही करना पड़ता था। परन्तु तृतीय शताब्दी ईसा पूर्व के अशोक के अभिलेखों में संघ-भेद करने पर भिक्षु-भिक्षुणी दोनों को अनावास स्थान में भेज देने का उल्लेख है। बुद्धघोष के अनुसार अनावास-स्थान निम्न थे-चेतियघर (श्मशान-स्थल),
१. चुल्लवग्ग, पृ० ४००. २. वही, पृ० ८६.९०. ३. वही, पृ० ६७-८१. ४. 'ए चुं खो भिखु वा भिखुनि वा संघ भाखति से ओदातानि दुसानि संनंधापथिया अनावाससि आवासयिये'
-Corpus Inscriptionum Indicarum, Vol. I. P. 161. ५. समन्तपासादिका, भाग तृतीय, पृ० १२४४.
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