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संगठनात्मक व्यवस्था एवं दण्ड-प्रक्रिया : १३९ श्रामणेरी, शिक्षमाणा और भिक्षुणी का पद-विभाजन तथा ज्येष्ठता के अनुसार उनके कर्त्तव्य एवं अधिकार संघ तक ही सीमित थे । संघ के बाहर अर्थात् श्रावक-श्राविकाओं के लिए वह सामान्य रूप से भिक्षुणी के रूप में जानी जाती थी। यह इसलिए भी सम्भव प्रतीत होता है कि वस्त्र आदि के धारण करने के सम्बन्ध में इन तीनों पदों में कोई भेद नहीं था जिससे सामान्य जन इनमें अन्तर स्थापित कर सकें। संघ में प्रवजित सभी स्त्रियाँ चाहे वे श्रामणेरी हों, शिक्षमाणा हों या भिक्षुणी हों, काषाय वस्त्र ही धारण करती थीं। थेरी
भिक्षुणी-संघ का यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पद था । महावंस में संघमित्रा को 'थेरी' शब्द से अभिहित किया गया है। इसी पकार कन्हेरी बौद्ध गहा अभिलेख (Kanheri Buddhist Cave Inscription) में घोषा की अन्तेवासिनी पूर्णकृष्णा को "थेरी' कहा गया है।'
थेरी के लिए अलग से नियमों का उल्लेख नहीं प्राप्त होता । भिक्षुसंघ के "थेर' के नियमों के आधार पर "थेरी" के भी कर्तव्यों, अधिकारों की जानकारी प्राप्त की जा सकती है। उपसम्पदा के १० वर्ष पश्चात् भिक्षु "थेर" कहलाने का अधिकारी होता था ।२ योग्य तथा नियमों का जानकार थेर ही उपाध्याय तथा आचार्य बनने का अधिकारी था। पवत्तिनी (प्रवर्तिनी, उपाध्यायिनी या उपाध्याया)
प्रवत्तिनी को ही उपाध्याया कहते थे। प्रतिनी के ही निश्रय में श्रामणेरी तथा शिक्षमाणा नियमों को सीखती थीं। १२ वर्ष की उपसम्पन्न भिक्षुणी ही प्रवत्तिनी या उपाध्याया बन सकती थी तथा वही संघ की सम्मति से शिक्षमाणा को उपसम्पदा प्रदान कर सकती थी। इस नियम का उल्लंघन करने पर पाचित्तिय का दण्ड लगता था । उपसम्पदा प्रदान करने के पश्चात् प्रवर्तिनी को ५ या ६ योजन तक उसके साथ
1. List of Brahmi Inscriptions, 1006. २. "परिपुण्णदसवस्सताय थेरो"
--समन्तपासादिका, भाग प्रथम, पृ० २३२. ३. "पवत्तिनी नाम उपज्झाया वुच्चति'
---पाचित्तिय पालि, पृ० ४४८. ४. पातिमोक्ख, भिखुनी पाचित्तिय, ७४, ७५.
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