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संगठनात्मक व्यवस्था एवं दण्ड-प्रक्रिया : १३७ सिक्खमाना (शिक्षमाणा)
श्रामणेरी के रूप में सिक्खापदों का सम्यकपेण पालन करने के पश्चात् वह शिक्षमाणा कहलाती थी। शिक्षमाणा को कम से कम दो वर्ष तक षड् नियमों का पालन करना अनिवार्य था। ये छः शिक्षाप्रद बातें निम्न थीं:
(१) प्राण-हिंसा से विरत रहना, (२) चोरी करने से विरत रहना, (३) अब्रह्मचर्य से विरत रहना, (४) मृषावाद से विरत रहना, (५) सुरा-मद्य के सेवन से विरत रहना, (६) विकाल भोजन करने से विरत रहना,
इन छः सिक्खापदों को सीखने के लिए श्रामणेरी अतिदुतियकम्म के माध्यम से भिक्षुणी-संघ के समक्ष निवेदन करती थी तथा इन नियमों के पालन करने की प्रतिज्ञा करती थी।
अविवाहित श्रामणेरी जो शिक्षमाणा के रूप में दो वर्ष व्यतीत करती थी, कुमारीभूता शिक्षमाणा कहलाती थी। कुमारीभूता शिक्षमाणा की आयु उपसम्पदा के समय २० वर्ष से कम नहीं रहनी चाहिए । विवाहित श्रामणेरी, जो शिक्षमाणा के रूप में दो वर्ष व्यतीत करती थी, गिहीगता शिक्षमाणा कहलाती थी तथा इसकी आयु उपसम्पदा के समय १२ वर्ष से कम नहीं रहनी चाहिए।
दो वर्ष तक इन सिक्खापदों (व्रतों) का पालन करने के पश्चात् ही शिक्षमाणा को उपसम्पदा प्राप्त करायी जाती थी। ऐसी श्रामणेरी को उपसम्पदा प्रदान करने पर पाचित्तिय का दण्ड लगता था जिसने शिक्षमाणा के रूप में दो वर्ष व्यतीत न किया हो।५ शिक्षमाणा को अपनी प्रवत्तिनी के साथ ६ या ७ योजन तक भ्रमण करने का विधान था ।
१. पाचित्तिय पालि, पृ० ४३५-३७. २. वही, पृ० ४३६ । ३. पातिमोक्ख, भिक्खुनी पाचित्तिय, ७१. ४. वही, ६५. ५. वही, ६३, ७२. ६. वही, ७०.
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