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संगठनात्मक व्यवस्था एवं दण्ड-प्रक्रिया : १२९ धर्मघोषा का उल्लेख है, जिसे "अन्तेवासिनी" कहा गया है, जबकि यह विशेषण प्रमुखतः बौद्ध भिक्षुणियों के लिए प्रयुक्त होता था। थेरी (स्थविरा)
सामान्य रूप से यह शब्द वृद्धा एवं बहुत वर्षों की दीक्षित भिक्षुणी के लिए प्रयुक्त होता था। संगठनात्मक व्यवस्था में यह भिक्षणी के पहले आती है । यद्यपि सद्यः दीक्षित वृद्ध भिक्षुणी का स्थान पूर्व दीक्षित भिक्षणी के बाद ही था । अतः यह स्पष्ट होता है कि दीक्षा-स्थविरा का पद भिक्षुणी से उच्च से था किन्तु सद्यः दीक्षित मात्र वय-स्थविरा का पद भिक्षुणो से निम्न था । थेरी के अधिकारों एवं कर्तव्यों के बारे में भी हमें कोई स्पष्ट सूचना नहीं प्राप्त होती । अभिषेका
इस पद के सम्बन्ध में भी हमें पूर्ण जानकारी नहीं प्राप्त होती। पद-विभाजन के क्रम से यह स्पष्ट होता है कि इसकी स्थिति प्रवत्तिनी से निम्न थी। अभिषेका को प्रत्तिनी-पद के योग्य माना गया है, अतः ऐसा प्रतीत होता है कि प्रवत्तिनी की मृत्यु के बाद अभिषेका को उस पद पर प्रतिष्ठित किया जाता था। अभिषेका को गणिनी के समकक्ष भी माना गया है। यह भावी गणिनी होती थी तथा गणिनी की वृद्धावस्था में उसके कार्यों को देखती थी। पवत्तिणी (प्रत्तिनी)
भिक्षुणी-संघ में यह अत्यन्त महत्त्व का पद था। प्रवत्तिनो को साध्वियों की नायिका कहा गया है। इस महत्त्वपूर्ण पद पर योग्य साध्वी ही अधिष्ठित की जाती थी। इस पद के लिए आचार-प्रकल्प (दण्ड
१. बृहत्कल्पभाष्य, भाग चतुर्थ, ४३३९-टीका. २. वही, भाग तृतीय, २४०७-टीका. ३. "अभिषेकप्राप्ता प्रवत्तिनीपदयोग्या''--वही, भाग चतुर्थ, ४३३९–टीका. ४. "गणिनी अभिषेका तस्याः सदशः"
--वही, भाग तृतीय, २४११-टीका. ५. "प्रवत्तिनी सकलसाध्वीनां नायिका"
--वही, भाग चतुर्थ, ४३३९-टोका.
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