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१२८ : जैन और बौद्ध भिक्षुणी-संघ परन्तु इससे कुछ सूचना नहीं प्राप्त होती । प्रवत्तिनी की स्थिति बाद के भाष्य आदि ग्रन्थों से स्पष्ट होती है, परन्तु प्रवत्तिनी से भिन्न गणावच्छेदिनी की क्या स्थिति थी-छेद ग्रन्थों से यह स्पष्ट नहीं होता। छेद ग्रन्थों में सर्वत्र “पवत्तिणी वा गणावच्छेइणी" कहा गया है।
जैन भिक्षुणी-संघ की संगठनात्मक व्यवस्था का विकसित रूप भाष्यों, चूर्णियों एवं टीकाओं से प्राप्त होता है, जिसकी सहायता से उसकी एक क्रमबद्ध रूप-रेखा बनाई जा सकती है। बृहत्कल्पभाष्य में भिक्षुणीसंघ के पाँच पदों का उल्लेख है, जो इस प्रकार है-प्रवत्तिनी, अभिषेका, भिक्षुणी, स्थविरा, क्षुल्लिका ।'
खुड्डि (क्षुल्लिका) .. यह सद्यः प्रवजित नारी होती थी। बृहत्कल्पभाष्य में इसे “बाला"२ कहा गया है। इससे यह प्रतीत होता है कि संघ के आचार-नियमों की इसे पूरी जानकारी नहीं रहती थी। दक्षिण भारत के अभिलेखों में जैन भिक्षुणियों के समाधिमरण तथा दान देने के अवसरों पर उनके लिए "गुड्डि" शब्द का प्रयोग किया गया है, जो प्रायः शिष्याओं के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। सम्भवतः यह प्राकृत ‘खुड्डि" का हो दक्षिण भारतीय रूपान्तर था। क्षुल्लिका के रूप में वह नियमों को कब तक सीखती थीइसका कोई उल्लेख नहीं प्राप्त होता । भिक्खुणी (भिक्षुणी)
नियमों की सम्यक जानकारी प्राप्त करने के पश्चात् छेदोपस्थापनीय चारित्र को प्राप्त क्षुल्लिका भिक्षुणी कहलाती थी। जैन ग्रन्थों के निग्गन्थी (निम्रन्थी) तथा साध्वी शब्द भिक्षुणी के अर्थ में ही प्रयुक्त हुए हैं।
उत्तर भारत के अधिकांश जैन अभिलेखों में भिक्षु की शिष्या के रूप में भिक्षुणी के लिए “शिशिनी' शब्द का प्रयोग हुआ है, परन्तु आश्चर्यजनकरूप से मथुरा से प्राप्त एक अभिलेख में भदन्त जयसेन की शिष्या १. “संयत्यः क्षुल्लिका स्थविरा भिक्षुणी अभिषेका प्रवत्तिनी चेति पञ्चविधाः"
-बृहत्कल्पभाष्य, भाग तृतीय, २४०७-टीका. “निर्ग्रन्थीवर्गेऽपि पञ्चपदानि, तद्यथा-प्रवत्तिनी अभिषेका भिक्षुणी स्थविरा क्षुल्लिका च"
वही, भाग षष्ठ, ६१११-टोका. २. वही, भाग चतुर्थ, ४३३९-टीका. 3. List of Brahmi Inscriptions, 11.
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