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सिद्धसेन दिवाकर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
उल्लेख अवश्य किया होता, पर ऐसा नहीं है। अत: यह सिद्धसेन दिवाकर की कृति न होकर कुमुदचन्द्र की ही कृति है, यह सिद्ध हो जाता है।
ये कुमुदचन्द्र, चिकुरद्वात्रिंशिका के कर्ता हैं जिन्होंने ऋषभदेव की स्तुति में इसकी रचना की थी। डॉ० पी०एन० दवे१४७ का मन्तव्य है कि इस कमदचन्द्र का किसी गुर्वावलि में कोई उल्लेख नहीं मिलता, न ही ये दिगम्बर कुमुदचन्द्र (ई०सन् ११२५) हैं। कुमुदचन्द्र का समय १२वीं शताब्दी निर्धारित किया जा सकता है, जिसके कुछ मुख्य कारण इसप्रकार है___ (१) १३वीं शताब्दी से पहले कुमुदचन्द्र का नाम सिद्धसेन के लिए नहीं मिलता, (२) चिकुरद्वात्रिंशिका में 'हेवाक' शब्द आया है जो पारसी या अरब मूल का शब्द होने से ११वीं शताब्दी से पहले का नहीं एवं (३) इस पर कोई प्राचीन वृत्ति या टीका भी नहीं मिलती।
अत: उपर्युक्त साक्ष्यों के आलोक में यह सिद्ध हो जाता है कि सिद्धसेन दिवाकर कल्याण मन्दिर के कर्ता नहीं है, यह रचना कुमुदचन्द्र की निर्विवाद रूप से सिद्ध होती है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि सिद्धसेन दिवाकर के सन्मतितर्क, द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, न्यायावतार एवं कल्याणमन्दिरस्तोत्र ये जो चार ग्रन्थ माने जाते हैं। उनमें से वे सन्मतिसूत्र एवं कुछ द्वात्रिंशिकाओं के ही कर्ता सिद्ध हो पाते हैं। शेष द्वात्रिंशिकाएँ अन्य किसी सिद्धसेन की, न्यायावतार सिद्धर्षि की एवं कल्याणमन्दिरस्तोत्र कुमुदचन्द्र की रचना है। इसमें कोई संशय नहीं रह जाता। सन्दर्भ :
श्रीजिनरलकोश : हरिदामोदर वेलंकर, भण्डारकर ओरिएण्टल रिसर्च इन्स्टीच्यूट, १९४४, अंक-१, पृष्ठ १३८। शालाक्यं पूज्यपाद प्रकटितमधिकं राल्यतंत्रं च पात्रस्वामि प्रोक्तं विशोग्रहशमनविधि: सिद्धसेनैः प्रसिद्धै। - पुरातन-जैनवाक्य-सूची, पृष्ठ १२७। नीतिसारपुराणस्य सिद्धसेनादि सूरिभिः । वही, पृष्ठ १२७। तत्त्वार्थभाष्य वृत्ति, अ० १, सूत्र-१०, पृष्ठ-७१ । पण्डित सुखलाल जी एवं बेचरदास जी, सन्मति प्रकरण, पृष्ठ-६६। धनञ्जय, धनञ्जयनाममाला, ११६, श्री हर्षपुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला, शांतिपुरी, सौराष्ट्र, वि०सं०-२०३६। सन्मति प्रकरण, पृष्ठ-८३।
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