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सिद्धसेन दिवाकर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
कृत वृत्ति, हर्षकीर्ति द्वारा रचित व्याख्यालेश वृत्ति (सं० १७१६), गुणसागरकृत २५० ग्रन्थान की टीका, जिनविजयगणि (सं० १७१०) कृत टीका, मुनिरत्नकृत कल्याणमन्दिरच्छायास्तोत्र, श्री तपाचार्यकृत कल्याणमन्दिरस्तोत्रटीका, माणिक्यचन्द्र (सं०१६६८) कृत दीपिका, मेरुतुंगाचार्य की वालावबोध टीकाएँ मुख्य हैं। ... कल्याणमन्दिरस्तोत्र का प्रो०हर्मन जैकोबी ने जर्मन भाषा में अनुवाद किया है यह कनककुशलगणि एवं माणिक्यचन्द की टीका सहित एच०आर० कापड़िया द्वारा भी सम्पादित किया गया है। १३४
रचनाकार
कल्याणमन्दिरस्तोत्र सिद्धसेन की रचना है या नहीं इसे लेकर श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्पराओं में विवाद है। श्वेताम्बर परम्परागत मान्यता के अनुसार 'कुमुदचन्द्र' सिद्धसेन का दीक्षा नाम था, और इसलिए कल्याणमन्दिरस्तोत्र के
अन्तिम श्लोक में कवि या रचनाकार ने जो अपना नाम कुमुदचन्द्र दिया है, वह सिद्धसेन दिवाकर का ही अपर नाम है, अतएव यह सिद्धसेन दिवाकर की ही कृति है। परन्तु दिगम्बर परम्परा ऐसा नहीं मानती। इस मान्यता के अनुसार यह कुमुदचन्द सिद्धसेन के अतिरिक्त कोई अन्य होने चाहिए क्योंकि मात्र प्रभावकचरित में ही सिद्धसेन का दीक्षा नाम कुमुदचन्द होने का उल्लेख है। प्रभावकचरित से पहले सिद्धसेन विषयक जो दो प्रबन्ध लिखे गये हैं, उनमें कुमुदचन्द्र नाम का कोई उल्लेख नहीं है-पण्डित सुखलाल जी एवं बेचरदास जी ने अपने सन्मति की प्रस्तावना में इस बात को व्यक्त किया है।१३५ बाद के बने हुये दो प्रबन्धों मेरुतुङ्गाचार्यकृत प्रबन्यचिन्तामणि (सं०१३६१) एवं जिनप्रभसूरिकृत विविधतीर्थकल्प(सं०१३८९) में कुमुदचन्द्र नाम का कोई उल्लेख नहीं मिलता। राजशेखर के प्रबन्धकोश अपरनाम चतुर्विंशति प्रबन्ध (सं०१४०५) में कुमुदचन्द्र नाम मिलता अवश्य है परन्तु इसमें प्रभावकचरित के विरुद्ध कल्याणमन्दिरस्तोत्र को 'पार्श्वनाथद्वात्रिंशिका' के रूप में व्यक्त किया गया है। साथ ही यह भी उल्लेख है कि वीर की द्वात्रिंशिका स्तुति से जब कोई चमत्कार देखने में नहीं आया तब यह पार्श्वनाथ द्वात्रिंशिका रची गई, जिसके ग्यारहवें से नहीं किन्त प्रथम पद्य से ही चमत्कार प्रारम्भ हो गया।१३६ ऐसी स्थिति में ऐसा प्रतीत होता है कि पार्श्वनाथ द्वात्रिंशिका के रूप में जो कल्याणमन्दिर स्तोत्र रचा गया। वह ३२ पद्यों की कोई दूसरी ही रचना होनी चाहिए न कि ४४ पद्यों वाला यह कल्याणमन्दिरस्तोत्र। १३७
प्रो०हर्मन जैकोबी का मत है कि चूंकि सिद्धसेन की किसी भी कृति में कुमुदचन्द्र का उल्लेख नहीं मिलता, इसलिए कुमुदंचन्द्र, सिद्धसेन ही हैं ऐसा नहीं कहा जा
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