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सिद्धसेन दिवाकर की कृतियाँ
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सुखलालजी प्रभृत विद्वानों ने इसे सिद्धसेन की उपलब्ध बाईस द्वात्रिंशद्वात्रिंशिकाओं में, बाईसवीं द्वात्रिंशिका के रूप में परिगणित किया है। इसके लिए उन्होंने प्रभावकचरित ६३ में आये 'न्यायावतार सूत्रं च श्री वीर स्तुतिमपथ्य' इस कारिका को आधार बनाया है। प्रबन्ध में प्रभावकचरित ही एक ऐसा ग्रन्थ है जिसके अनुसार द्वात्रिंशद्वात्रिंशिकाओं में न्यायावतार भी एक द्वात्रिंशिका है ऐसा संकेत मिलता है। इसके अतिरिक्त न तो किसी प्राचीन प्रबन्ध में और न ही सिद्धसेन की किसी अन्य कृति में इसका उल्लेख है। ऐसी स्थिति में, जैसा कि अनेक विद्वानों ने माना है, न्यायावतार को स्वतन्त्र रचना मानना ही तर्कसङ्गत लगता है।
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आरा
न्यायावतार की उपलब्ध प्रतियों में श्री सतीशचन्द्र विद्याभूषण द्वारा सम्पादित (अंग्रेजी अनुवाद) कलकत्ता १९/९, दि सेन्ट्रल जैन पब्लिशिंग हाउस, १९१५ से प्रकाशित; पी० एल० वैद्या द्वारा सम्पादित, बाम्बे १९२८; हेमचन्द्रसभा द्वारा प्रकाशित सिद्धर्षि - टीका युक्त, पाटन वि० सं० १९१७; पण्डित सुखलाल जी द्वारा सम्पादित गुजराती प्रस्तावना, अहमदाबाद सं० १९८३; श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल, अगास, वि०सं० २०३२ एवं न्यायावतारवार्तिकवृत्ति, सिंघी जैन ग्रन्थमाला, भारतीय विद्याभवन, बम्बई, वि० सं० २००५ आदि मुख्य हैं। मूलग्रन्थ जैनधर्मप्रसारक सभा ग्रन्थमाला १३, भावनगर से १९०९ में प्रकाशित हुआ है।
वृत्ति और टीकाएँ
न्यायावतार पर जो वृत्ति और टीकाएँ लिखी गई हैं उनमें (१) हरिभद्रसूरिकृत वृत्ति, ग्रन्थाग्र २०७३, बृहत्तिपणिका नं० ३६५ अनुपलब्ध, जैन साहित्यिक संशोधक पूना, १९२५६४ (अनुपलब्ध), (२) सिद्धर्षिगणि (९वीं शती) कृत 'सिद्धव्याख्यनिका' (बृहत्तिपणिका, ३६५ ) (३) देवभद्रसूरिकृत टिप्पण ग्रन्थान २९५३ पद्य ६५ (४) राजशेखरसूरिकृत वृत्तिटिप्पण, (५) शान्तिसूरि ( शान्त्याचार्य - १२वीं शती) कृत न्यायवतारवार्तिक वृत्ति, पाटन - कलकत्ता (६) श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय के आदि वैय्याकरण श्री बुद्धिसागर के सहोदर खरतर गच्छीय आचार्य जिनेश्वरसूरि (११वीं शती) कृत न्यायावतार के प्रथमसूत्र - 'प्रमाणंस्वपरभासि' पर प्रमालक्ष्म या प्रमाण - लक्षण टीका (ग्रन्थाग्र - ४०५) एवं (७) ५५ संस्कृत श्लोकों की एक वार्तिक (लेखक - अज्ञेय) जिसे जैन वार्तिक या प्रमाणवार्तिक" भी कहा जाता है, मुख्य हैं।
विषयवस्तु
न्यायावतार की विषयवस्तु प्रमाण मीमांसा है। रचनाकार ने प्रथमकारिका 'प्रमाणं स्वपरभासि ज्ञानं बाधविवर्जितम्' में प्रमाण की परिभाषा देते हुए
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