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सिद्धसेन दिवाकर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
मेरे मतानुसार २१वीं द्वात्रिंशिका के कर्ता सिद्धसेन दिवाकर न होकर सिद्धसेन गणि होने चाहिए, जिन्होंने उमास्वाति प्रणीत तत्त्वार्थाधिगमसूत्र' पर टीका लिखी है एवं जिनका समय प्रो०एच०आर०कापड़िया ने विक्रम की सातवीं शती (७वीं शताब्दी) निश्चित किया है।५८ सम्भव है सिद्धसेन गणि का ही नाम २१वी द्वात्रिंशिका में चढ़ गया हो। अत: सन्मतिकार सिद्धसेन दिवाकर २१वी द्वात्रिंशिका को छोड़कर प्रथम पाँच एवं ग्यारहवीं स्तुत्यात्मक द्वात्रिंशिकाओं या कुछ अन्य के कर्ता हैं, यह स्पष्ट है। इस सन्दर्भ में पण्डित जुगलकिशोर मुख्तार का यह कथन अग्राह्य लगता है कि यदि २१वी द्वात्रिंशिका को छोड़कर शेष २० द्वात्रिंशिकाएँ एक ही सिद्धसेन की कृतियाँ हों तो सन्मति सत्रकार सिद्धसेन उनमें से किसी भी द्वात्रिंशिका के कर्ता नहीं हैं।५९ क्योंकि प्रबन्धों (विविधतीर्थकल्प एवं प्रबन्धकोश१) के आधार पर शिवलिंग के सम्मुख आसनासीन हो स्तुति करने वाले सिद्धसेन दिवाकर ही हैं, यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है। किन्तु २१वीं एवं अन्य कुछ द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता सिद्धसेन, जिनके नाम का सूचन २१वी द्वात्रिंशिका में मिलता है सिद्धसेन दिवाकर न होकर सिद्धसेन गणि हैं जिनकी रचना बाद में हुए घालमेल के कारण दिवाकर की रचनाओं में किसी तरह समाविष्ट हो गई। मेरे विचार से २२वी द्वात्रिंशिका के रूप में परिगणित किया जाने वाला स्वतन्त्रग्रन्थ न्यायावतार सिद्धर्षि की कृति है, क्योंकि प्राप्त प्रमाणों एवं साक्ष्यों के आधार पर न्यायावतार को धर्मकीर्ति के पहले या विक्रम की सातवीं शताब्दी के पहले किसी भी स्थिति में नहीं रख सकते, (एवं सिद्धसेन दिवाकर पांचवीं शताब्दी के हैं) इसकी विस्तृत चर्चा हमने अगले पृष्ठों में न्यायावतार के सन्दर्भ में की है। बत्तीस पद्यों वाले न्यायावतार के कर्ता सिद्धर्षि के सिद्ध हो जाने पर उनके समतुल्य महावीर द्वात्रिंशिका (२१वीं) आदि के कर्ता भी वहीं हैं, ऐसा मान लेने में कोई असंगति नहीं रह जाती।
न्यायावतार न्यायावतार जैन दार्शनिक साहित्य में जैन-न्याय एवं प्रमाण-मीमांसा का निरूपण करने वाला एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ माना जाता है। रचनाकार ने ग्रन्थ में जैन दर्शन सम्मत प्रमाण-मीमांसा के मौलिक सिद्धान्तों का संक्षिप्त किन्तु विशद विवेचन किया है। इसे जैन प्रमाण-शास्त्र का एक आकर ग्रन्थ कहा जा सकता है। ग्रन्थपरिमाण एवं भाषा
न्यायावतार में अनुष्टुप् छन्द में रचित कुल ३२ कारिकाएँ हैं। भाषा संस्कृत एवं शैली बोधगम्य है। बत्तीस कारिकाओं की रचना होने के कारण पण्डित
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