SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीवन वृत्तान्त विजयोपरान्त देवपाल ने सिद्धसेन का आभार प्रकट करते हुए कहा गुरुदेव! मैं प्रतिद्वन्द्वी के आक्रमण से उपस्थित भय रूपी अंधकार से भ्रान्त हो गया था, आपने सूर्य के समान मेरे तिमिराच्छन्न मार्ग को प्रकाशित किया है अत: आपकी प्रसिद्धि 'दिवाकर' नाम से हो। तभी से आचार्य सिद्धसेन के साथ 'दिवाकर' पद विशेष जुड़ गया।१४ कार नगर में अब सिद्धसेन मुक्तभाव से राज्यसुविधाओं का उपभोग करने लगे। वे हाथी पर बैठते और शिबिका का भी प्रयोग करते। इस सुखोपभोग के कारण उनके साधनाशील जीवन में शैथिल्य की जड़े विस्तार पाने में समर्थ होने लगीं। आचार्य होकर भी वे संघनिर्वहण को जैसे विस्मृत कर दिये थे। धर्मसंघ में चर्चा होने लगी दगपाणं पुष्फफलं अणेसणिज्जं गिहत्यकिच्चाई। अजया पडिसेवंती जइवेसविडंबगा ।।१५ अर्थात् सचित्त जल पुष्प, फल, अनेषणीय आहार का ग्रहण एवं गृहस्थ कार्यों का अयत्नपूर्वक सेवन श्रमणवेश की प्रत्यक्ष विडम्बना है। आचार्य सिद्धसेन के इस कार्यकलाप एवं अपयश की कथा जब आचार्य वृद्धवादी को ज्ञात हुई तो शिष्य को भटकने से रोकने के लिए वे छद्मवेश में कर्मार पहुँचे और राजा की भाँति सुखासन पर बैठे लोगों से घिरे सिद्धसेन से पूछा 'आप बड़े विद्वान् हैं, आप मेरे शंसय को दूर करें, आपकी ख्याति सुनकर आप तक आया हूँ।'१६ आचार्य सिद्धसेन ने कहा खुशी से पूछो। तब वृद्धवादी विद्वानों को भी आश्चर्य में डाल देने वाले उच्चस्वर में कहा अणु हुल्लीय फुल्ल म तोडहु मन आरामा म मोडहु । मण कुसुमहिं अच्चि निरञ्जणु हिण्डइकाई वणेण वणु ।।१७ आचार्य सिद्धसेन को जब इस अपभ्रंश पद्य का अर्थ समझ में नहीं आया, तब उन्होंने अनादर से इस पद्य का असम्बद्ध एवं अस्पष्ट अर्थ किया, जिसे अस्वीकार करते हए वृद्धवादी ने सही उत्तर दिया कि 'जीवन रूपी छोटे कोमल फूल वाली मानव देह के जीवनाश रूपी फूलों को तुम राजशासन एवं तज्जन्य गर्व के प्रहार से मत तोड़ो। मन के यम-नियमरूपी आरामों (उद्यानों) को भोग-विलास के द्वारा भंग न करो। मन के सद्गुणरूपी पुष्पों के द्वारा निरंजन की पूजा करो। तुम संसार रूपी एक वन से लाभ, सत्कारजन्य मोहरूपी दूसरे वन में क्यों भटकते हो? अर्थ सुनकर सिद्धसेन ने सोचा ये मेरे गुरु वृद्धवादी तो नहीं। पुन: सचमुच ही मेरे गुरु हैं, ऐसा विचार कर उनके पैरों में गिर क्षमा-याचना की और कहा ‘दोषवश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002085
Book TitleSiddhsen Diwakar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy