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सिद्धसेन दिवाकर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
उनका पूर्वनाम सिद्धसेन रख दिया। उन्हें गच्छ का दायित्व सौंप आचार्य वृद्धवादी स्वयं अन्यत्र विहार के लिए चले गये। प्रखर वैदुष्य के कारण सिद्धसेन की प्रसिद्धि सर्वज्ञपुत्र के नाम से हुई।
एक दिन सिद्धसेन अवन्ती के राजपथ से कहीं जा रहे थे। 'सर्वज्ञपुत्र की जय हो' कहकर उनकी विरुदावली उच्चघोषों से मार्गवर्ती चतुष्पथों पर बोलता हुआ जनसमूह उनके पीछे-पीछे चल रहा था। राजा विक्रमादित्य जो सामने से आ रहे थे, आचार्य सिद्धसेन को आता देख, उनकी सर्वज्ञता की परीक्षा के लिए मानसिक प्रणाम किया। निकट आने पर सिद्धसेन ने राजा को धर्मलाभ रूप आशीर्वाद दिया। राजा ने कहा आप बिना प्रणाम किये किसे आशीर्वाद दे रहे हैं? सिद्धसेन ने कहा आपने मानसिक नमस्कार किया था उसी के उत्तर में मैंने आशीर्वाद दिया। विक्रमादित्य इससे बहुत प्रभावित हुए और उन्हें विशाल धनराशि का अनुदान दिया।११ सिद्धसेन के उक्त दानराशि को अस्वीकार कर देने से उनकी त्यागवृत्ति से राजा और भी प्रभावित हुए एवं उस राशि को धर्म के प्रचार-प्रसार में प्रयुक्त किया।
एक बार सिद्धसेन ने उज्जयिनी से चित्रकूट की ओर विहार किया। वहाँ उन्होंने पहाड़ के एक ओर विविध औषधियों के चूर्ण से बना एक स्तम्भ देखा। उन्होंने बुद्धिबल से उस स्तम्भ के गंध, रस एवं स्पर्श की परीक्षा की और उनकी विरोधी
औषधियों का प्रयोग कर उस स्तम्भ में एक छेद कर दिया। स्तम्भ में हजारों पुस्तकें थीं। पस्तक के प्रथम पृष्ठ के पढ़ने से ही उन्हें सर्षपमन्त्र और स्वर्णसिद्धियोग नामक दो महान विद्याएँ उपलब्ध हुईं। १२ वे आगे पुस्तक पढ़ना चाहते ही थे तभी शासन देवी ने उनसे पुस्तक छीन लिया। सर्षप विद्या प्रभाव से मन्त्र द्वारा जलाशय में प्रक्षिप्त सर्षपकणों के अनुपात में चौबीस प्रकार के उपकरण सहित सैनिक निकलते थे और प्रतिद्वन्द्वी को पराभूत कर जल में अदृश्य हो जाते थे, एवं हेमविद्या के द्वारा किसी भी धातु को स्वर्ण में परिवर्तित किया जा सकता था। सिद्धसेन विहार करते हुए चित्रकूट से पूर्व दिशा की ओर प्रस्थित हुए। अनेक गाँवों का विहरण करते हुए वे कार नगर पहुँचे। वहाँ का शासक देवपाल था। आचार्य से बोध प्राप्त कर वह उनका परमभक्त बन गया। कामरूप देश के नरेश विजयवर्म ने एक बार सैन्यदल के साथ कार पर आक्रमण कर दिया। देवपाल अपनी पराजय से आशंकित हो आचार्य सिद्धसेन के पास पहुँचा और कहा 'गुरुदेव आपका ही आश्रय है, आचार्य ने कहा “मा स्म विह्वलो भूः'१३ व्याकुल मत हो जिसका मैं सखा हूं, विजयश्री उसी की है। युद्ध की संकटकालीन स्थिति आने पर आचार्य ने सुवर्णसिद्धि योग से पर्याप्त परिमाण में अर्थ, एवं सर्षपमन्त्र के प्रयोग से विपुल सैन्य समूह का निर्माण कर देवपाल को विजयवर्म पर विजय प्राप्त करने में सहायता की।
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