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________________ २६ सिद्धसेन दिवाकर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व दोनों कर्णाटक और उसके आस-पास के रहने वाले हैं। पं० सुखलालजी का सिद्धसेन से पहले कुन्दकुन्द को रखने का प्रयास ठीक है। और कोई ऐसा प्रमाण सामने नहीं आया जिससे कुन्दकुन्द और समन्तभद्र को सिद्धसेन का परवर्ती मान लिया जाय। कुन्दकुन्द समन्तभद्र और सिद्धसेन निश्चित रूप से पूज्यपाद से पहले हुए हैं, जिन्होंने अपनी सर्वार्थसिद्धि में कुन्दकुन्द के द्रव्यानुप्रेक्षा (गाथा-२५/९) एवं सिद्धसेन की स्तुति (III/16) तथा अपने संस्कृत व्याकरण में (५.४.१४०) समन्तभद्र का सन्दर्भ उल्लिखित किया है। डॉ०उपाध्ये का मानना है कि कालक्रमीय निष्कर्ष को विशेष साक्ष्यों की आवश्यकता होती है, वहाँ दृष्टिकोण एवं समानान्तर विचारधारा कोई मायने नहीं रखते जहाँ किसी विशेष कालावधि को जानने का निश्चित साधन उपलब्ध न हो। (३) सुमति या सन्मति और वादिराज (ई०स०१०२५) द्वारा सन्मति पर लिखा एक भाष्य, ये पुरातात्त्विक साक्ष्यों के आधार पर लिखे गये हैं, ऐसा उल्लेख श्रवणवेलगोला के एक अभिलेख एवं पार्श्वनाथचरित' में मिलता है। ये दोनों ही साधन दक्षिण विशेषतः कर्णाटक से सम्बद्ध हैं। (४) परम्परा सर्वसम्मति से यह मानती है कि अपने जीवन के अन्तिम दिनों में सिद्धसेन दक्षिण चले गए थे जहाँ पेंठन (प्रतिष्ठानपुर) में उनकी मृत्यु हो गई थी। डॉ० उपाध्ये के अनुसार वह उनकी स्वाभाविक मनोवृत्ति का परिणाम था।" ___ डॉ०उपाध्ये के इस मत का समर्थन आंशिक रूप से बाद के एक प्रबन्ध के अतिरिक्त कहीं प्राप्त नहीं होता, एवं यह कहना कि उन्हें उनकी स्वाभाविक मनोवृत्ति मृत्यु के समय उनके जन्मभूमि की तरफ ले गई थी, साक्ष्यों के अभाव में युक्तियुक्त नहीं लगता। अत: उनका यह कहना कि वे कर्णाटक में पैदा हुए थे एवं बाद में उज्जैन चले गये थे, केवल उपर्युक्त प्रमाणों के आधार पर उचित प्रतीत नहीं होता। आचार्य सिद्धसेन, आचार्य वृद्धवादी के शिष्य थे जिनके गुरु विद्याधर आम्नाय शाखा में पादलिप्त कुल में उत्पन्न अनुयोगधर श्री स्कंदिलाचार्य थे। प्रबन्धचिन्तामणि के अनुसार वृद्धवादी आर्यसुहस्ति के शिष्य थे परन्तु उक्त मत समीचीन प्रतीत नहीं होता क्योंकि सम्प्रति के धर्मगुरु सहस्ति के अतिरिक्त अन्य कोई आर्यसुहस्ति जैन साहित्य में प्रसिद्ध नहीं हैं और यह आर्यसुहस्ति विक्रम से २०० वर्ष पहले हुए हैं, इसलिए उनके साथ वृद्धवादी के समय का मेल नहीं बैठता। पण्डित सुखलाल जी का कथन है कि ऐसा लगता है कि प्रबन्यचिन्तामणि का कथन महाकालतीर्थ के साथ दिवाकर और सुहस्ति के सम्बन्ध की भ्रांत परम्पराओं से उत्पन्न हुआ है।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002085
Book TitleSiddhsen Diwakar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size5 MB
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