________________
२२
सिद्धसेन दिवाकर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
४८. सन्मति प्रकरण, भूमिका, पृष्ठ- १३। ४९. न्यायावतार, पी० एल०वैद्य, की प्रस्तावना, बाम्बे १९२८,भूमिका, पृष्ठ-११। ५०. सन्मति प्रकरण, भूमिका, पृष्ठ- १३ ।
Prof. Tucci, Journal of Royal Asiatic Society, 1929, Bombay, July
p.472. ५१. पं०जुगलकिशोर मुख्तार, पुरातन-जैनवाक्य-सूची, पृष्ठ-१५१ । ५२. पं०सुखलालजी संघवी, ज्ञानबिन्दुप्रकरण की प्रस्तावना, पृष्ठ-५, पादटिप्पणी। ५३. नियमसार, १५९। ५४. सयं भयवं उप्पण-णाण-दरिसी सदेवाऽसुर-माणुस्स लोगस्स आगदिं गदिं चयणोववादं
बंधं मोक्खं इद्धिं ढिदि जुदिं अणुभागं तां कलं मणोमाणसिंय भुत्तं कदं पडिसेविदं आदिकम्मं अरहकम्मं सव्वलोए सव्व जीवे सव्वभावे समं जाणदि पस्सदि विहरिदित्ति।
षट्खण्डागम ४ पयडि, अ० सू०-७८ । ५५. पुरातन-जैनवाक्य-सूची, पृष्ठ- १४६। ५६. पुरातन-जैनवाक्य-सूची, पृष्ठ-१४६। ५७. सन्मति प्रकरण, पृष्ठ-१२१। ५८. वही, पृष्ठ-१२१। ५९. सन्मति प्रकरण, पृष्ठ-१२१। ६०. मुख्तार, पुरातन-जैनवाक्य-सूची, पृष्ठ १५। ६१. मतिज्ञानादिषुचतुर्पु पर्यायेणोपयोगो भवति, न युगपद। संभिन्नज्ञानदर्शनस्य तु
भगवत: केवलिनो युगपद् सर्वभावग्राहकेनिरपेक्षे केवलज्ञाने केवलदर्शने
चानुसमयमुपयोगो भवति। उमास्वाति-तत्त्वार्थभाष्य, १/३१। ii. हम सबसे पहले उमास्वाति के तत्त्वार्थभाष्य में ऐसा उल्लेख पाते हैं जो
स्पष्टरूपेण युगपद् पक्ष का बोध कराता है।
देखें-पण्डित सुखलाल जी, ज्ञानबिन्दुप्रकरण की प्रस्तावना, पृष्ठ-५४। ६२. पं०सुखलाल संघवी-तत्त्वार्थसूत्र-विवेचन सहित, पार्श्वनाथ विद्याश्रम, शोध-संस्थान,
वाराणसी, ग्रन्थमाला-२२, १९८५, प्रस्तावना, पृष्ठ-८। 63. A.N. Upadhye, Pravacanasāra, 'Introduction Shrimad Rajchandra
Jain Shastramala, Bombay 1964.
पुरातन-जैनवाक्य-सूची, पृष्ठ-१२। ६४. डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री, तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा,
श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद् सागर, १९७४, पृष्ठ-५७।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org