________________
सिद्धसेन दिवाकर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
दिगम्बर आचार्यों ने कुन्दकुन्द का समय विक्रम की प्राय: प्रथम शताब्दी एवं भूतबलि का प्राकृत पट्टावली, नन्दिसंघ की गुर्वावलि आदि प्रमाणों के अनुसार ई०सन् की प्रथम शताब्दी का अन्त और द्वितीय शताब्दी का आरम्भ माना है।६४ जहाँ तक कुन्दकुन्दाचार्य का प्रश्न है, अभी हाल ही में (१९९१) पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान वाराणसी से प्रकाशित ‘पण्डित दलसुखभाई मालवणिया अभिनन्दन ग्रन्थ' के एक लेख 'THE DATE OF KUNDKUNDACARAYA' में जैनकला और शिल्प के लब्ध-प्रतिष्ठ विद्वान् प्रो०एम०ए० ढाकी ने अनेक पृष्टप्रमाणों के आधार पर कुन्दकुन्द का समय ८वीं शताब्दी का उत्तरार्ध६५ निश्चित किया है। अपने मत के समर्थन में आपने अनेक साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्यों की समीक्षा करते हुए कुछ महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं की तरफ ध्यान आकृष्ट किया है- यथा, आपका तर्क है कि वर्तमान दिगम्बर परम्परा एवं रचनाकार कुन्दकुन्दाचार्य का समय ईसवी सन् का प्रारम्भ मानते हैं। कुन्दकुन्द के ग्रन्थों पर सर्वप्रथम टीका अमृतचन्द्राचार्य की मिलती है, जिनका समय पुष्ट साक्ष्यों के आधार पर ईसवी सन् की १०वीं शताब्दी माना गया है। कुन्दकुन्द जैसे समर्थ आचार्य के ग्रन्थों पर इन १००० वर्षों में कोई टीका क्यों नहीं लिखी गई, यह रहस्यमय और अविश्वसनीय लगता है।'६६ इससे स्पष्ट हो जाता है कि दिगम्बर पण्डितों ने कुन्दकुन्द के समय को जो ईसवी सन् का प्रारम्भ या विक्रम की प्रथम शताब्दी६७ बतलाया है वह कथमपि तर्कसंगत नहीं, उन्हें ८वीं शताब्दी के आस-पास होना चाहिए जिस पर १०वीं शताब्दी में अमृतचन्द्र ने टीका लिखी। इसके अतिरिक्त ‘स्वामी समन्तभद्र (ई०सन् ५७५-६२५), पूज्यपाद देवनन्दी (ई०सन् ६३५-६८५), भट्टअकलंक (ई० सन् ७२०-७८०) आदि दिगम्बर आचार्य एवं मल्लवादी क्षमाश्रमण (ई० सन् ५२५-५७५) जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण (ई०सन् ५५०-५९४), सिंहसरि क्षमाश्रमण (ई०सन् ७वीं शताब्दी का उत्तरार्ध), गंधहस्ती सिद्धसेनगणि (ई०सन् ७२५-७७०) एवं हरिभद्रसरि (ई०सन् ७४०-७८५) जैसे श्वेताम्बर आचार्य कुन्दकुन्द की रचनाओं या उनके सिद्धान्तों का कहीं उल्लेख नहीं करते,६८ जिससे स्पष्ट है कि आचार्य कुन्दकुन्द निश्चित रूप से इन आचार्यों के उत्तरवर्ती रहे हैं। दिगम्बर परम्परा और विद्वानों के कुन्दकुन्द का काल पहले निर्धारण करने का मुख्य आधार शक् संवत् ३८८ के मर्करा के ताम्रपत्रीय अभिलेख हैं, जिनमें कुन्दकुन्द के आम्नाय का नाम पाया जाता है, किन्तु अनेक प्रबल कारणों से ये ताम्रपत्रीय अभिलेख जाली सिद्ध हो चुके हैं। अन्य शिलालेखों में इस आम्नाय का उल्लेख ८वीं शताब्दी के पूर्व नहीं पाया जाता।६९ स्वयं पण्डित मुख्तार ने कुन्दकुन्दाचार्य व भूतबलि को उमास्वाति से पूर्व सिद्ध करने के लिए श्रवलवेलगोला के जिन शिलालेखों को
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org