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जैन-परंपरा में श्रीकृष्ण साहित्य दासना नहीं है बल्कि आध्यात्मिक स्तर की उदात्त भावना है जो संयम पर आधारित है। अरिष्टनेमि ने जिस कठोर साधना को अपनाया उसको राजीमती ने भी अपनाया और वह अरिष्टनेमि से पूर्व ही मुक्त हो जाती है।
रथनेमि और राजीमती
राजीमती के रूप पर अरिष्टनेमि का सहोदर रथनेमि आसक्त था । वह उसके पास नित्य नये उपहार भेजता। सरलहृदया राजीमती उसकी कुटिल बात न समझ सकी। इन उपहारों को वह अरिष्टनेमि के ही उपहार समझती रही । पर, एक दिन एकान्त में रयनेमि ने अपनी अभिलाषा व्यक्त की। जब राजीमती ने यह सुना तो वह सारा रहस्य समझ गयी। उसे समझाने के लिए उसने सुगन्धित पयःपान किया और उसके वमन के लिए दवा भी ले ली। जब वमन हुआ तो उसे एक स्वर्णपात्र में लेकर रथनेमि को देकर कहा "लीजिए, इसे पान कीजिए" तो रथनेमि ने कहा, क्या मैं कुत्ता हूँ ? वमन का पान इन पान नहीं करता-कुत्ता करता है। राजीमती ने उत्तर दिया, "मैं अरिष्टनेमि द्वारा वमन की हुई हूँ। फिर तुम क्यों मुग्ध होकर मेरी इच्छा कर रहे हो? क्या तुम्हारा विवेक नष्ट हो गया है ? जो वमन की हुई चीज की इच्छा करता है उसे मर जाना चाहिए। लगता है तुम्हारा विवेक नष्ट हो गया है।" राजीमती की इस फटकार ने काम किया। राजीमती दीक्षाभिमुख होकर तप और संयम करने लगी। राजीमती ने अनेक महिलाओं के साथ दीक्षा ले ली। पर, एक दिन की घटना है-बादल गरज रहे थे। बिजलियाँ कौंध रही थीं। रैवतक पर्वत पर साध्वी महासती राजीमती अन्य साध्वी सहित चढ़ रही थी। अचानक वृष्टि शुरु हो गयी। साध्वियों का झुंड बिखर गया। अपने दल से बिछुड़ी हुई राजीमती ने वर्षा से बचने के लिए एक अंधेरी गुफा का आश्रय लिया। इस गुफा के एकान्त स्थान को देखकर राजीमती ने अपने गीले वस्त्र उतारकर फैला दिये । रयनेमि ने भी प्रव्रज्या ली थी। वे भी इसी गुफा में ध्यानमग्न थे। अचानक बिजली चमकी। राजीमती को अकेली और निर्वस्त्र देखकर उसका मन विचलित हो गया। राजीमती ने भी जब उसे देखा तब वह अपने अंगों का गोपन कर जमीन पर बैठ गयी। रथनेमि उसको मनाने लगा। उसने कहा-तुम्हारे बिना पैं शरीर धारण नहीं कर सकता । मेरी मनोकामना तुम पूर्ण करो। फिर हम दोनों संयम ग्रहण कर लेंगे। राजीमती ने पुनः फटकारकर कहा-"श्रमण होकर भी तुम भोगलीन होने की इच्छा करते हो। वमन की हुई विषवस्तु खाकर तुम जीवित रहना चाहते हो ? तुम चाहे नल-कुबेर या साक्षात् इन्द्र के समान क्यों न हो, मैं तुम्हारी इच्छा नहीं करती । तुम्हारे लिये मृत्यु को वरण कर लेना ही श्रेयस्कर है।" साध्वी राजीमती के इन वचनों को सुनकर रथनेमि का मन स्थिर हो गया। राजीमती
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