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________________ परिशिष्ट-२ २८५ मूक और निरीह प्राणी बारातियों के भोजनार्थ रखे गये हैं । अरिष्टनेमि का हृदय दया से द्रवित हुआ। वे तोरण से वापिस लौट गये । श्रीकृष्ण ने उन्हें समझाया पर वे न माने । राजीमती का दुःख यह सब जानकर राजीमती के चेहरे की गुलाबी खुशियाँ गायब हो गयीं । उसे अतीव दुःख हुआ। उसने कहा-विवाह की बाह्य रीति रस्म भले ही न हुई हो किन्तु अंतरंग हदय से मैंने उन्हें वर लिया है। अब मैं आजन्म उन्हीं स्वामी की उपासना करूंगी। माता-पिता ने उसे बहुत समझाया, पर वह न मानी । राजीमती को सखियों ने बहुत समझाया। उसके आँसू पोंछे और कहा, राजुल, तुम बहुत भोली हो । जो तुम्हें नहीं चाहता उसके लिए क्यों आँसू बहा रही हो जिसके पास नारी के कोमल हृदय को परखने की वृत्ति नहीं—अन्तःकरण नहीं---जो दारुण वेदना को नहीं पहचान सका ऐसे निरीह हृदय वाले पर तुम अपना दिल क्यों लुटाती हो? वे कायर थे इसीलिए जीव दया का बहाना बना कर बिना विवाह किये चल दिये। राजीमती अपने प्रेम में दृढ़ थी। उसने सखियों को फटकारा । तुम क्या जानो वे कसे करुणावतार थे ! जिसने अपने समस्त सुखों को पशुओं की करुण पुकार पर त्याग दिया वे कितने वीर हैं ! उनको कायर कहते तुम को लज्जा क्यों न आई ? तुम सब मुझे अकेली छोड़कर चली जाओ। सखियों ने पुन: उसे समझाया। इस पर राजीमती ने पुन: डाँटा और कहा-चुप रहो । मुंह से ऐसी-वैसी बातें न निकालो। अरिष्टनेमि मेरे प्रियतम हैं। मैं उनका हृदय से वरण कर चुकी हूँ। पागल मैं नहीं तुम सब हो । मैं क्षत्रिय बाला हूँ। एक ही बार वह अपना जीवन साथी चुनती है। मैंने भी वैसा ही तय किया है। अब जो उनकी राह होगी वही मेरी होगी। प्रेममूर्ति राजीमती प्रेममूर्ति राजीमती अरिष्टनेमि की अपलक प्रतीक्षा करती रही। वह नित्य सोचती रहती-भगवान एक-न-एक दिन अवश्य मेरी पुकार सुनेंगे । किन्तु, उसकी इच्छा पूर्ण न हो सकी । एक सालभर उसके अन्तर्मानस में अनेक संकल्प डूबते-उतरते रहे । इस अन्तर्व्यथा को लेकर अनेक जैन कवियों ने बारहमासे लिखे हैं। राजीमती के माध्यम से इस विधा को कंठाभरण और लिखित रचना के रूप में ज्ञात और अज्ञात जैन कवियों ने अपनाया। ___ यह वियोग शृंगार वर्णन अनूठा और हृदयग्राही है । यह गेय और लोकगीत का रूप पकड़ चुका है । एक लोकोक्ति प्रसिद्ध है “जो न होते नेम राजीमती तो क्या करते जैन यति"। राजीमती की उपासना देह की नहीं देही की है। इसमें भौतिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002083
Book TitleJain Sahitya me Shrikrishna Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1991
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size12 MB
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