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परिशिष्ट - २
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अब प्रश्न यह उठता है कि इस प्रकार जब लोक मान्यता और लोक जीवन में ही राधा के स्वरूप का प्रादुर्भाव हुआ होगा, तभी वहाँ से सदियों के पश्चात् वह साहित्य और पुराणों में आया हो तो कतिपय वैदिक ग्रंथों में उसका उल्लेख क्यों कर नहीं हुआ होगा ? पर राधा का कोई उल्लेख ऐसा नहीं मिलता । जैसा कि पहले ही वर्णित हो चुका है कि श्रीकृष्ण का अधिकतम विस्तृत जीवन चरित्र श्रीमद्भागवत में उपलब्ध होता है । इस ग्रंथरत्न में राधा का उल्लेख ही नहीं है । यदि राधा का उल्लेख इसी राधा के अर्थ में अन्य वेदादि ग्रंथों में हुआ हो तो श्रीमद्भागवत में उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती थी। इन अन्यान्य वेदादि ग्रंथों में उल्लिखित राधा का प्रयोग कदाचित् अन्यार्थ में ही हुआ होगा ।
उक्त धारणा के समर्थन में डॉ० हरवंशलाल की मान्यता विशेषतः उल्लेखनीय है कि यद्यपि पौराणिक पण्डित राधा का संबंध वेदों से जोड़ते हैं, किंतु ऐतिहा सिक प्रमाणों के अभाव में श्रीकृष्ण की प्रेमिका के रूप में उसे वेदों तक घसीटना असंगत ही लगता है । गोपाल कृष्ण की कथाओं से परिपूर्ण भागवत, हरिवंशपुराण और विष्णुपुराणादि ग्रंथों में राधा का अभाव अनेक प्रकार के संदेहों को जन्म देता है ।
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फिर अन्य प्राचीन ग्रंथों में राधा के प्रयोग का कोई इतर प्रयोजन तो नहीं है, इस अनुमान की पुष्टि और एक दिशा का संकेत पं० बलदेव उपाध्याय से मिलता है। उनका मत है कि राध तथा राधा दोनों शब्दों की उत्पत्ति 'राध वृद्धी' धातु से है । इसमें आ उपसर्ग जुड़ने पर आराधयति धातुपद बन जाता है । फलतः इन दोनों शब्दों का समान अर्थ है-आराधना, अर्चना, अर्चा | राधा इस प्रकार वैदिक राधः या राधा का व्यक्तिकरण है । राधा पवित्र तथा पूर्णतम आराधना का प्रतीक है ! आराधना की उदात्तता उसके प्रेमपूर्ण होने में हैं । इस प्रकार राधा शब्द के साथ प्रेम की प्रचुरता का, भक्ति की विपुलता का भाव की गहनीयता का संबंध कालांतर में जुड़ता गया और धीरे-धीरे राधा विशाल प्रेम की प्रतिमा के रूप में साहित्य और धर्म में प्रतिष्ठित हो गयी । "
समग्र विचार दोहन से निष्कर्ष यही प्राप्त होता है कि राधा के रूप में जिस पात्र के साथ हमारा मानसिक परिचय है, वह ऐतिहासिक नहीं । यह स्वरूप मात्र कल्पना - प्रसूत है । परवर्ती कवियों द्वारा यह कल्पना कर ली गयी है और बाद के कवियों द्वारा वह कल्पना इस प्रचुरता के साथ अपनायी और पुष्ट की जाती रही कि
१. सूर और उनका साहित्य - डॉ० हरवंशलाल शर्मा, पृ० २६५
२.
भारतीय वाङ्मय में श्रीराधा, पं० बलदेव उपाध्याय, पृ० ३१
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