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परिशिष्ट-२
२८१ महाभारत में यदुवंश के साथ आभीर वंश का घनिष्ठ संबंध बताया गया है और उल्लेख है कि श्रीकृष्ण की एक लाख नारायणी सेना मुख्यतः आभीर क्षत्रियों से निर्मिन हुई थी और महाभारत के युद्ध में दुर्योधन की ओर से लड़ी थी। राधा का स्रोत
डा० शशिभूषणदास गुप्त ने अपने बंगला भाषा में रचित शोध ग्रन्थ "राधार क्रम विकास' में राधा विषयक अनुसंधान में उपलब्ध अनेक महत्वपूर्ण मंतव्य प्रस्तुत किए हैं। सामान्यतः उनके निष्कर्ष से किस सीमा तक सहमति स्थिर हो सकती है ? यह अन्य प्रश्न है, किंतु उनसे विचार का आधार अवश्य बनता है। डा० दास गुप्त का एक मत तो यह है कि राधावाद का बीज भारतीय शक्तिवाद में है। जो पहले शक्ति रूप में थी, वही कालान्तर में परम प्रेममयी राधा के रूप में परिणत हो गयी। क्या विचार दृष्टि से और क्या भाषा की दृष्टि से किसी भी दृष्टि से शैव-शाक्त तंत्रोक्त शक्तिवाद और वैष्णव शास्त्रोक्त शक्तिवाद में कोई विशेष पार्थक्य करना संभव नहीं प्रतीत होता । सम जातीय विचार और भाव ही मानों भिन्न-भिन्न वातावरण में भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रकट हुए हैं।
डा० दास गुप्त का मत राधापूजक संप्रदायों एवं उनकी मान्यताओं के समझाने में कितना सहायक हो सकता है, यह एक विवादग्रस्त प्रश्न है, किंतु उनकी यह धारणा सर्वथा उपयुक्त है कि साहित्य का अवलंबन करके ही राधा का आविर्भाव और क्रम प्रसार हुआ है।
उक्त आधार को समीचीन मानकर चला जाये तो राधा का सर्व प्रथम उल्लेख "गाहासत्तसई" में मिलता है जिसका संकलन (अन्त:साक्ष्य के अनुसार) विक्रमी संवत् के आरंभ में हुआ प्रतीत होता है। इसके अनुसार राधा की कल्पना इसके पूर्व तो थी ही नहीं । कुछ विद्वानों का कथन यह भी है कि इस ग्रंथ में मौलिक रूप से राधा के उल्लेख नहीं हैं। छठी शताब्दी में ये अंश इस ग्रंथ में जोड़ दिए गए थे। अस्तु, यह प्रायः निश्चित है कि ५ वीं शताब्दी के पश्चात् ही राधा अपने वर्तमान स्वरूप को प्राप्त कर सकी है। यही वह काल था जिसमें राधा का स्वरूप न केवल साहित्यिक रचनाओं में अपितु कला के अन्यान्य क्षेत्रों की कृतियों में भी स्थान प्राप्त करने लगा। राधाकृष्ण की एक युगल मूर्ति बंगाल के पहाडपुर में उपलब्ध हुई है, जो इस प्रकार की प्राचीनतम प्रतिमा मानी जाती है और इसका निर्माण-काल सातवीं-आठवीं शताब्दी का माना जाता है।
१. राधार क्रम विकास : डा० शशिभूषण दास गुप्त । २.
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